पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७७

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खराबध्यान बोषितष को होता है, उससे वह विरहित होता है। वह इस सुख को त्याग कर बम लाम करता है।" वो सत्व बोधिचित्त का उत्पाद करता है, उसका चित्त अनन्त दुष्कृतों से सुसंवृत होता है, और इसलिए उसको दुर्गति से भय नहीं होता । वह शुभ कर्म और कृपा की वृद्धि करता है। वह सदा मुख-दुःख में प्रसन रहता है । उसको आत्मा की अपेक्षा पर प्रियतर है । वह पराए के लिए अपने शरीर और पीयन की उपेक्षा करता है। वह कैसे अपने लिए दूसरे का उपघात कर दुष्कृत में प्रवृत्त होगा। संपदावस्था तथा विपदावस्या में वह कैश और दुःख से भयभीत नहीं होता। वह पराए के लिए उद्योग करता है। अवीचि भी उसके लिए रम्य है । फिर वह कैसे दूसरे के कल्याण के निमित्त दुःखोत्पाद से त्रस्त होगा ? वह सत्वों की उपेक्षा कभी नहीं कर सकता। उसके चित्त में महाकारुणिक भगवान् नित्य निवास करते हैं। उसका चित्त दूसरे के दुख से दुःखी होता है। पर-कल्याण के लिए कुछ करने का अवसर प्राप्त होने पर यदि उसके कल्याण-मित्र समादापना करें, तो उसको अति लजा होती है । बोधिसत्व ने अपने ऊपर सत्वों का महान् भार लिया है। वह सत्यों में श्रम है, अतः शिथिल गति सको शोभा नहीं देती । उसको भावकों की अपेक्षा सौगुना वीर्य करना चाहिये । [ शिरसि विनिहितोच्चसत्यभारः शिथिलगतिर्नहि शोभतेऽप्रसत्वः ४१२८] बोषिसबका संभार श्रसंग बताते है [५वा अधिकार ] कि यह सुगतात्मज है । जिसने बोधिचित्त का ग्रहण किया है, कैसे महाकरुणा से प्रेरित हो महाबोधि के लिए प्रस्थान कर संभार में प्रवच होता है। वह अपने और पराए में विशेष नहीं करता। उसको समानचित्तता प्राप्त है। वह अपने से पराए को श्रेष्ठतर भी मानता है। उसका कौन स्वार्थ है, कौन परार्थ। उसके लिए दोनों एक समान है। इसीलिए, अपने को सन्तप्त करके भी वह परार्थ को साधित करता है। संसार में शत्रु के प्रति भी लोग इतने निर्दय न होंगे, जितना कि अपने प्रति बोधिसव निर्दय होता है, जब वह दूसरों के लिए अत्यन्त दुःख का अनुभव करता है । विमूढ़ बन अपने सुख के लिए सचेष्ट होता है, और उसके न प्राप्त होने पर दुखी होता है। किन्तु पो परार्थ के लिए उग्रत है, वह स्वार्थ और परार्थ का संपादन कर निति-सुख को प्राप्त होता है। अनेक प्रकार से बोधिसत्व होन, मध्य, विशिष्ट गोवस्यों का हित संपादित करता है । वह उसको देखना देता है ऋद्धि-प्रतिहार्य से उनका प्रावर्जन करता : उनको शासन में अवतीर्ण करता है; अनेक संशयों का निराकरण करता है; कुशल में उनका परिपाक करता है; अववाद-चिच- १. पापिनुपायजामतो महामिसंभ्यर्थसुखत्वपरमात् । महाजिरपतिा बन गमिष्यन्ति लिन तालम् ॥ [१]