पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/४७९

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सप्तदश अध्याय को देखते हैं । यह हो सकता है कि तम के कारण विद्यमान न देखा जा सके, किन्तु अविद्यमान का देखा जाना शक्य नहीं है । [६।२-४] असंग एक श्राक्षेप का उत्तर देते हुए कहते हैं कि श्रात्मा के बिना भी (पुद्गल का) शम और जन्म का योग है । परमार्थ-दृष्टि से संसार और निर्वाण में किञ्चिन्मात्र अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों का समान नैरात्म्य है। तथापि यह विधान है कि जो शुभ कर्म के करने वाले हैं, जो मोक्षमार्ग की भावना करते हैं, उनको जन्मक्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।' नागार्जुन की भी यही शिक्षा है। विधानवाद और माध्यमिक दोनों का परमाये -सत्य एक ही है। परमार्थ-शान-यात्मदृष्टि-विपर्यास को निरस्त कर असंग कहते हैं कि इस विपर्यास का प्रतिपक्ष पारमार्थिक ज्ञान है । इस शान में प्रवेश पुण्यज्ञानसभार और चिन्ता द्वारा धर्मों के विनिश्चय से होता है। उस ममय बोधिसत्व अर्थ की गति को जान जाता है । उसको यह अवगत हो जाता है कि अर्थ जल्पमात्र है, और वह अर्थाभास चित्तमात्र में अवस्थान करता है । यह बोधिसत्र की निवेधभागीय अवस्था है। पुनः उसको धर्मधातु का प्रत्यक्ष होता है, और इससे वह ग्राह्यग्राहकलक्षण से विमुक्त होता है । यह दर्शनमार्ग की अवस्था है [१७]। बुद्धि द्वारा यह अवगत कर कि चित्त से अन्य बालबन ( ग्राह्य ) नहीं है, उसको यह भी अवगन होता है कि चित्तमात्र भी नहीं है, क्योंकि जब ग्राह्य का अभाव है, तब ग्राहक का भी अभाव है। दय में इसके नास्तित्व को जान कर वह धर्मधातु में श्रवस्थान करता है । भावनामार्ग की अवस्था में श्राभय-परिवर्तन से पारमार्थिक ज्ञान में प्रवेश होता है । समतानुगत आवकल्पक शान के बल से वह दोध-संचय का निरसन करता है, और बुद्धत्व को प्राप्त होता है। बोधिचर्या बोधिचर्या में प्रथम चरण विज्ञप्तिमात्रता है, अर्थात् यह ज्ञान कि ग्राह्य और माहक चित्तमात्र है। दूसरे चरण में यह विशानवाद अद्वयवाद में परिवर्तित हो जाता है- "धर्म-धातु का प्रत्यक्ष होने से वह द्वयलक्षण से विमुक्त हो जाता है ।" तृतीय चरण-नागा- र्जुन का यह मत है कि जब बुद्धि से यह अवगत हो गया कि चित्त के अतिरिक्त कोई दूसरा बालबन नहीं है, तो यह बाना जाता है कि चित्तमान का भी अस्तित्व नहीं है, क्योंकि वहां प्राय नहीं है, वहां ग्राहक भी नहीं है। वह किसी नास्तित्व में पतित नहीं होता, क्योंकि जब बोधिसत्व दय में चित्त के नास्तित्व को बान जाता है, तब प्राण-प्राहक-लक्षण से रहित हो वह धर्म-धातु में अवस्यान करता है। यह मूल नित्त है, जो सपिंडित मं को बालंबन बनाता है। चतुर्थ चरण में इस परमार्थ-ज्ञान का प्रयोग बोधिचर्या के लिए होता है [६७-२01 १. न चान्तरं किसन विद्यतेऽनयोः सदस्था शमजन्मनोरिह । क्यापि जन्मक्षयतो विधीयते शमस्य वामः शुभकर्मकारिणाम [५]