पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१८

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बौद्धधर्मदर्शन अमेद-भेद सुख-दुःख के समान परस्परविरुद्ध है, और एक ही वस्तु में आरोपित नहीं हो सकते । पुनः अभेद और भेद दोनों व्यवस्थापित नहीं हो सकते। सब धर्म एक ही स्वभाव के होंगे, क्योंकि यह व्यवस्था है कि विरुद्ध धर्म एक स्वभाव के हैं। अथवा श्रापका धर्म को सत्ता से अभिन्न और भिन्न दोनों है, प्रशस्ति-सत् होगा; तात्त्विक न होगा। चतुर्थ श्राकार श्राजीविकादि का है, जिनके अनुसार सद्धर्म सत्ता से न अभिन्न हैं, न भिष | किन्तु यह वाद पूर्व वर्णित भेदाभेद-वाद से मिला-जुला है। क्या यह वाद प्रतिकात्मक है ? क्या इस वाद का निषेधद्वय युक्त नहीं है ? क्या यह वाद शुद्ध निषेध है ? उस अवस्था में वाणी का अभिप्राय विलुप्त हो जाता है। क्या यह प्रतिकात्मक और निषेधात्मक दोनों है। यह विरुद्ध है। क्या यह इनमें से कोई नहीं है ? शब्दाडम्बरमात्र है। अन्य वादों की कटिनाइयों के परिहार के लिए यह वृथा प्रयास है । हीनयान रेसप्रतिष रूपों के दय्यस्व का निषेध इसके पश्चात् शुमान-च्चांग हीनयान के धर्मों की परीक्षा करते हैं। हीनयान में चार प्रकार के धर्म है, जो द्रव्य-सत् है :-चित्त-चैत, रूप, विप्रयुक्त, असंस्कृत शुमान-च्चांग कहते है कि अन्त के तीन धर्म विज्ञान से व्यतिरिक्त नहीं है। रूप - हीनयान में दो प्रकार के रूप है-मप्रतिष (पहले १० पायतन ) और अप्रविध ( यह धर्मायतन का एक प्रदेश है । यह. परमाणुमय नहीं है )। सप्रतिष-रूप परमाणुमय है। सौत्रांतिक मत से परमाणु का दिन विभाग है, किन्तु सर्वास्तिवादी और वैभाषिक परमाणु का सूक्ष्म रूप (बिन्दु) मानते हैं। दोनों मानते है कि श्रावरण-प्रतिधातवश परमाणु सप्रतिय । किन्तु दिगभागभेद के संबन्ध में इनका मतैक्य न होने से प्रावरण-प्रतिघात के अर्थ में भी एक मत नहीं है । सौत्रान्तिक मानते हैं कि परमाणु स्पृष्ट होते है, और दिग्वेश-भेदवश उनका प्रतिघात होता है। सर्वास्तिवादी नहीं स्वीकार कर सकते कि उसके परमाणु स्पृष्ट होते हैं क्योंकि यह सूक्ष्म (बिन्दु ) हैं। शुभान-बांग कहते हैं कि सूक्ष्म परमाणु सोवृत्त है, ओर उनका संधात नहीं हो सकता; तथा जिनका दिग्विभाग है,वह विभजनीय है; और इसलिए वह परमाणु नहीं है । यदि परमाणु अति सूक्ष्म, अविभननीय और वस्तुतः रूपी है, तो वह परस्पर स्थूल, संहत रूप जनित नहीं करते। दोनों अवस्थानों में परमाणु की ससा नहीं है, और इसलिए, परमाणुमय रूप भी विलुप्त हो जाता है। किसी युक्ति से भी परमाणु द्रव्य सत् नहीं सिद्ध होता । पुनः हीनयानवादी स्वीकार करते है कि पंच विज्ञानकाय का प्राश्रय इन्द्रिय है, और उनका श्रालंबन बालार्थ हैं, तथा इन्द्रिय और अर्थ रूप हैं। शुश्रान-च्चांग का मत है कि इन्द्रिय और अर्थ विशान के परिणाममात्र है। इन्द्रिय शक्ति है । यह 'उपादाय-रूपा नहीं है । एक सप्रतिध रूप जो विज्ञान से बहिरवस्थित है, युक्तियुक्त नहीं है । इन्द्रिय विज्ञान का परिणाम-निर्भास है। इसी प्रकार प्रालंकन प्रत्यय भी विज्ञान से बहिर्भूत नहीं है। यह विज्ञान का परिणाम ( निमित्तभाग) है।