पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५१७

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अधादश अध्याय ४२६ इसी प्रकार कर्मादि अन्य पदार्थों का भी विज्ञान से पृथक् स्वभाव नहीं है। वैशेषिक कहते हैं कि पदार्थों का प्रत्यक्ष शान होता है, जैसा विधान से व्यतिरिक्त द्रव्यसत्-स्वभाव का होना चाहिए, किन्तु यह यथार्थ नहीं है। यही बात कि द्रव्य शेय (शन के विषय) है, यह सिद्ध करता है कि यह विज्ञान के अभ्यन्तर में है। श्रत: सिद्धान्त यह है कि वैशेषिकों के पदार्थ प्रशस्तिमात्र है। महेश्वर परीक्षा-बान-च्वांग महेश्वर के अस्तित्व का भी प्रतिषेध करते हैं। उनकी युक्ति यह है कि जो लोक का उत्पाद करता है, वह नित्य नहीं है; जो नित्य नहीं है, वह विभु नहीं है, जो विभु नहीं है, वह द्रव्यतः नहीं है । पुनः जो सर्वशक्तिमान् है, वह सब धमों की सृष्टि सकृत् करेगा, न कि क्रमशः । यदि सृष्टि के कार्य में वह छन्द के अधीन है, तो वह स्वतन्त्र नहीं है, और यदि वह हेतु-प्रत्यय की अपेक्षा करता है, तो वह सृष्टि का एकमात्र कारण नहीं है। शुश्रान च्वाँग काल, दिक, अाकाशादि पदार्थों की भी सत्ता नहीं मानते । जोकावतिक परीक्षा-तदनन्तर वह लोकायतिकों के मत का खंडन करते है। इनके अनुसार थियो-सलिल-तेज-वायु इन चार महाभूतों के परमाणु, जो वस्तुओं के सूक्ष्म रूप है, कारण रूप है, नित्य है, और इनकी परमार्थ सत्ता है । इनसे पश्चात् स्थूल रूप ( कार्यरूप) का उत्पाद होता है । जनित स्थूलरूप का कारण से व्यतिरेक नहीं होता । शुश्रान-च्वांग इस वाद का इस प्रकार खंडन करते हैं। यदि सूक्ष्मरूप ( परमाणु) का दिग्विभाग है, जैसा पिपीलिका-पंक्ति का होता है; तो उनका एकत्व केवल प्रति है, संशमात्र है । यदि उनका चित्त-वैत्त के सदृश दिग्विभाग नहीं होता, तो उनसे स्थूलरूप का उत्पाद नहीं हो सकता । अन्ततः यदि उनसे कार्य बनित होता है, तो वे नित्य और अविपरिणामी नहीं है। अन्य तीथिकों की परीक्षा-तीथिकों के अनेक प्रकार है। किन्तु इन सब का समावेश चार श्राकारों में हो सकता है। जहां तक सद् धर्म का संबन्ध है, पहला श्राकार सांख्यादिका है। इनके अनुसार सद्धर्मों का तादात्म्य सत्ता या महासत्ता से है। किन्तु इस विकल्प में सत्ता होने के कारण इन सब का परस्पर तादात्म्य होगा, यह एक स्वभाव के होंगे, और निर्विशेष होंगे; जैसे सत्ता निर्विशेष है। सांख्य में अान्तरिक विरोध है, क्योंकि वह प्रकृति के अतिरिक्त तीन गुण और श्रात्मा को द्रव्यतः मानता है। यदि सर्व रूप रूपता है, अर्थात् यदि सब वर्ण वर्ण है, तो नील और पीत का मिश्रण होता है। दूसरा श्राकार वैशेषिकादि का है। इनका मत है कि सद्धर्म सत्ता से भिन्न है। किन्तु इस विकल्प में सर्व धर्म की उपलब्धि प्रध्वंसाभाव के सदृश नहीं होती। इससे यह गमित होता है कि वैशेषिक द्रव्यादि पदार्थों का प्रतिषेध करता है। यह लोकविरुद्ध है, क्योंकि लोक प्रत्यक्ष देखता है कि वस्तुओं का अस्तित्व है। यदि वर्ण वर्ण नहीं है, तो उनका ग्रहण चतु से नही होगा, जैसे शब्द का ग्रहण चक्षु से नहीं होता। तीसरा श्राकार निन्ध आदि का है, जो मानते हैं कि सद्धर्म सत्ता से अमिन और भिन्न दोनों है। यह मत युक्त नहीं है । पूर्वोक दो आकारों के सब दोष इसमें पाए जाते हैं।