पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५२

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( * ) ये षडङ्ग योग है । सिद्धि दो प्रकार की है:-१. सामान्य और २, उत्तम । यौगिक विभूतियाँ सामान्य सिद्धि के अन्तर्गत हैं। सम्यक् संबोधि या बुद्धच उत्तमा सिद्धि है। समाजोत्तर- तन्त्र के अनुसार पहनयोग से ही बुद्धत्व या सम्यक् संबोधि प्राप्त हो सकती । इसके चार उपाय हैं:-१. सेवाविधान, २. उपसाधन, ३. साधन, ४. महासाधन । महोष्णोषबिंब की भावना सेवाविधान के अन्तर्गत है। यह अशेष धातुक बुद्ध-वित्र है। अमृत कुंडलिनी रूप से बिब की भावना उपसाधन है। देवताविंध की भावना साधन है। बुद्धाधिप तथा विभुरूप से विष की भावना महारााधना है। दस इन्द्रियों को अपने अपने विषय के प्रति वृत्ति बाहरण है । इन इन्द्रियों का अन्तर्मुख होकर अपने स्वरूपमात्र अनुवर्तन प्रत्याहार है । प्रत्याहार के समय इन्द्रियों की विषय-भावापत्ति या विषय-ग्रहण नहीं रहता। प्रत्याहार का फल वैराग्य, त्रिकाल दर्शन, धूमादि दस निमित्तों के दर्शन की सिद्धि है । शुद्ध श्राकाश में धूम, मरीचि, खद्योत, दीपकलिका, चन्द्र-सूर्य, या बिन्दु का दर्शन निमित्त-दर्शन है । इस दर्शन के स्थिर होने पर मन्त्र साधक के अधीन हो जाता है । उसे वाक्-सिद्धि होती है । प्रत्याहार से बिब-दर्शन होने पर ध्यान का प्रारम्भ होता है। यह योग का द्वितीय अङ्ग है। स्थिर तथा चर, अर्थात् यावत् चराचर भाव को पंचकाम कहा जाता है। पंचबुद्ध के प्रयोग से सब भावो में यह कसना करना कि सभी बुद्ध है, ध्यान है ध्यान के बाद तृतीय श्रङ्ग प्राणायाम है । मनुष्य का श्वास पंचज्ञानमय है, और पंचभूत- स्वभाव है । इसको पिण्डरूप में निश्चल करके नासिका के श्रप्रदेश में कल्पना करनी चाहिये । यह अवस्था महारत्न नाम से प्रसिद्ध है। अक्षोभ्य प्रभृति पंचबुद्ध पंचज्ञानस्वभाव है। विज्ञानादि पंचस्कन्ध हो इनका स्वरूप है.। वाम तथा दक्षिण नासापुट में श्वास का प्रवाह होता है। इन दोनों प्रवाह के एकीभूत होने पर वह पिण्डाकार हो जाते हैं । इसी पिण्ड को नासाम पर स्थिर करना पड़ता है। पहल माणवायु को मध्य मार्ग म निश्चल करना चाहिये, उसके बाद नासिकार में । इसे नाभि, हृदय, फ.एट, ललाट तथा उणीप कमल की कणिका में स्थिर करना चाहिये, क्योकि नासा और कमल का बिन्दु समसूत्र है। महारत्न पंचवर्ण कहा जाता है। वाम तथा दक्षिण प्रवाह का निरोध करके केवल मध्यमा में उसे प्रवाहित करना चाहिये। इस प्रकार निरुद्ध प्राणवायु पंचवर्ण महारत्न कहा जाता है। वज्रयानी इस प्राणायाम को 'वजनाप कहते हैं। दो विरुद्ध धाराओं को समिलित करके मध्यनाड़ी का अवलम्ब लेते हुए उज्यापन करना चाहिये और नासाम में स्थिर करना चाहिये । साधारण मनुष्यों का प्राणवायु अशुद प्रवृत्तियों का वाहन है। यह संसार का कारण है। यही पंचक्रम का रहस्य भी है। चतुर्थ श्रङ्ग धारणा है। अपने इष्ट मन्त्र प्राण का हृदय में ध्यान करते हुए उसे ललाट में निकल करना चाहिये । ( मन का बाणभूत होने के कारण प्राण ही मन्त्रपद का वाच्य है।) हृदय से अर्थात् परिपका स हटाकर कणिका के मध्य में स्थापित करना चाहिये। इसके बाद बिन्दुस्थान ललाट में उसम्म निये क्या जाता है। इसी का नाम धारणा है । उस समय प्राय