पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५३

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का संचरण, अर्थात् श्वास-प्रश्वास नहीं रहता। प्राण एकलोल हो ललाटस्य विन्दु में प्रवेश करते हैं। निरुद्ध इन्द्रिय 'रत्न' पद का याच्य है । चित्त के अवधूती-मार्ग में प्रविष्ट होने पर पूर्व- वर्णित धूमादि निमित्तों का प्रतिभाम होता है। धारणा का फल वनसत्त्व में समावेश है। इसके प्रभाव से स्थिरीभूत महारत्न या प्राणवायु नाभिचक्र से चाण्डाली को, अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति को उठाता है। वनमार्ग से मध्यधारा का अवलंब करते हुये क्रमशः यह उम्पीपचक्र तक पहुँचता है। यह उणीप-कमल की कणिका तक पहुँच कर फायादि-स्वभाव चार बिन्दुओं को उस निर्दिष्ट स्थान विशेष में ले जाता है, जिसका निर्देश गुरु ने पहले ही किया है । धारणा सिद्ध होने पर चारडाली शक्ति स्वभावतः उज्ज्वल हो जाती है । पंचम अंग अनुस्मृति है। प्रत्याहार तथा ध्यान से त्रिघातु को प्रतिभासित करने वाले संवृति-सत्य की भावना निश्चल की जाती है । अनुस्मृति का उद्देश्य है, संवृति-सत्य की भावना का स्फुरण करना । इसके प्रभाव से एकदेशवृत्तिक श्राकार, जो संवृति-सत्याकार है, समय अाकाशव्यापीरूप से परिदृष्ट होने लगता है । उससे त्रिकालस्थ समन भुवन का दर्शन होता है । यही अनुस्मृति है। अनुस्मृति का फल प्रभामण्डल का श्राविर्भाव है । चित्त के विकलरहीन होने से इस विमल प्रभामण्डल का आविर्भाव होता है । इस समय रोम-कूप से पंचरश्मियों का निर्गम होता है। इस योग का पष्ठ अंग समाधि है। प्रजोपाय-समापत्ति के द्वारा सर्व भावों का समाहार करके पिण्डयोग से बिंब के भीतर भावना करनी पड़ती है । टीक-टोक भावना करने पर अकस्मात् एक महाक्षण में महाज्ञान की निष्पत्ति हो जाती है । यही समाधि है। निष्पन्नादि क्रम से व्योम- कमल का उद्गम होने पर अक्षर-सुख का उदय होता है । जेय और ज्ञान के एकलोलीभूत होने से विमल अवस्था का प्राविर्भाव होता है। उस समय प्रतिभामस्वरूप स्थावर-जंगम यावत् भावों को उपस्हत,अर्थात् संकुचित करके विडयोग से श्रर्थात् परम श्रनासव महासुखात्मक प्रभास्वर रूप से विब के भीतर भावना करनी पड़ती है। जैसे लोहादि सत्र रमों को भक्षण करने पर रकमात्र सिद्ध रस रहता है, इसे भी टीक इसी प्रकार का समझना चाहिये । इस परम अनासव महासुखमय प्रभास्वर के भीतर संवृति-सत्यरूप विव की भावना करनी चाहिये। इस प्रकार की भावना या साक्षात्कार का फल परम महाज्ञान का प्राविमा है। इसमें संवृति-सत्य तथा परमार्थ-सत्य का द्वैधोमाव छूट खाता है, और दोनो अद्यरूप में प्रकाशमान होते हैं । युगनद विज्ञान का यही रहस्य है । यही बुद्ध का परम स्वरूप है, अर्थात् प्रत्येक प्रात्मा का परम स्वरूप है। समाधिशिता से निरावरण-भाव अंदत होता है। मंजुश्री ने कहा है:-प्रत्याहारादि छः अंगों से वस्तुत: शन्यता-भावना ही उक्त है। धूमादि निमित्तों के क्रम से प्रकाश में धातुक बिनदर्शन को प्रत्याहार के अंगरूप में स्थिर करके पब बिवदर्शन की स्थिति सिद्ध की जाती है, तब योगी सब मन्त्रों का ,अधिष्ठाता होता है। ध्यान के प्रभाव से बालभाव छूट जाते हैं, चित्त दृढ़ होता है, और बिंब-लग्न चित्त होने