पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६

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के प्रभाव सूत्यता-बिंब सापन की अनुकूल रहि के साधन के रहस्य से प्राचीन लोग परिचित थे। सेवा हो इसका मुख्य उपाय है। धूमादि दस निमित्तों की भावना ही सेवा है। इस अवस्था में चित्त अाकाश में निमित्त दर्शन करता है। यह उम्णोष की क्रोध-दृष्टि या अध्व-दृष्टि से होता है। यह अनिमेषष्टि है। गत्रि में चार प्रकार की और दिन में छः प्रकार की सेवा का विधान है। बच तक वित्र का माक्षात्कार नहीं होता, तब तक सेवा करना चाहिये। यह डान साधन का प्रथम अंग है । क्रोध-दृष्टि के बाद ही अमृत-दृष्टि का अवसर श्राता है। यह ललाट की दृष्टि है । इमी का नाम अमृताद है। यह अमृतकुंडली नामक विघ्नेश्वर की दृष्टि है। इस प्राण-वित्र का दर्शन होता है। प्राण-विध दर्शन के अनन्तर प्राणायाम तथा धारणा की अावश्यकता पड़ती है। भवा- राग से सृष्ट बोषि-चित्तरूप बिन्दु इस समय अक्षर-योग का लाभ करता है। गुल, नामि, तथा हृदय में क्रमश: यह योग प्रतिष्ठित होता है। शान-साधन का यह तृतीय अंग है। अनष्ट सौख्स के साथ बोधिचित्त का एकक्षणव-यही शान्त या सहब स्मिति है। इस समय चित्त प्रवर सुख के साथ एक हो पाता है। यह शान-साधन का चतुर्थ अंग है। तांत्रिक बौद्ध-साधना में दो प्रकार का योगाभ्यास होता है। मंत्र-यान में श्राकाश में तथा पारमिता-यान में अभ्यवकाश में । प्रथम मार्ग में आवश्यक है कि साधक रात्रि में छिद्रहीन तथा अंधकारपूर्ण गृह में आकाश की तरफ दृष्टि लगाकर और सर्व चिन्ताओं से मुक्त होकर एक दिन परीक्षा के लिए बैठे। यहाँ देखना चाहिये कि धूमादि निमित्तों का दर्शन हो रहा है या नहीं। नयन को अनिमिय रखना चाहिये, और वजमार्ग में या मध्यमा-मार्ग में प्रविष्ट होना चाहिये। तब शून्य से पूर्वोक्त धूम, मरीचि, खद्योत तथा प्रदीप दृष्टिगोचर होंगे। जबतक यह न हो तबतक रात्रि में इस अभ्यास को चलाना चाहिये । उसके बाद मेधहीन निर्मल श्राकाश में गानोद्भूत महाप्रज्ञा का दर्शन होगा। यह दीत अमि की शिखा के समान होगा। इस ज्ञानज्योति का नाम वैरोचन है । चन्द्र और सूर्य का दर्शन भी होगा। प्रभास्वर विद्युत् तथा परमझमल का दर्शन भी होगा । अन्त में बिन्दु का साक्षात्कार होगा। ये सब निमित्त किसी संप्रदाय के अनुसार गत्रि में और किसी के अनुसार दिन में दर्शनीय है। अन्त में सर्वाकार घटपटादि बिंब का दर्शन होता है । इस बिंब के भीतर दुद्ध-बिंब का दर्शन होता है। इस अवस्या में विषय नहीं रहता, उश्य नहीं रहता, और कल्पना भी शत्य हो जाती है। यहाँ अनेक संभोग-काय है। इस वित्र के साथ योग होने पर यथार्थ अनाहत पनि का क्या होता है। इससे प्रतीत होता है कि रूपामास से निर्माण-काय क्या शब्दावमास से संभोग-काय होता है। दिन के समय योगी को स्वप इष्टि से पूर्वाड तथा अपराड में मेष-दीन भाकायको देखना चाहिये। सूर्य की तरफ छुट रखना चाहिये, अन्यथा सूर्य-रश्मि से तिमिर होने की अाशंका रहेगी। तबतक प्रतिदिन इसकी अभ्यास होना चाहिये, बक्तक बिन्दु भीतर काल-