पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६७

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मटादश अध्याय चोदक पुनः कहता है कि क्या आप प्रत्यक्ष विषय का प्रतिषेध करते हैं। उत्तर है कि जिस क्षण में रूप-शब्दार्थ की उपलब्धि होती है उस क्षण में यह बाधवत् गृहीत नहीं होता। पश्चात् मनोविज्ञान ( मनोविकल्प ) वास-संशा को विपर्यासतः उत्पन्न करता है। अतः जो प्रत्यक्ष का विषय होता है वह विज्ञान का निमित्तभाग है। यह निमित्त- भाग विज्ञान का परिणाममात्र है । अतः कहा जाता है कि यह है और विशन ( दर्शनभाग) भी है, जो निमित्तभाग की उपलब्धि करता है | किन्तु यह सब केवल विकल्पधर्म है। संक्षेप में अर्थ रूप नहीं है, किन्तु रूपाभास है। यह बहिःस्थित नहीं है, किन्तु बाह्याभास है। एक और आक्षेप है:-"आप कहते हैं कि जो रूप हम नामत अवस्था में देखते हैं वह विज्ञान से व्यतिरिक्त नहीं है, यथा जो रूप स्वप्न में देखा जाता है। किन्तु स्वप्न से जागकर हम जानते हैं कि स्वप्न में देखा रूप केवल विज्ञान है, फिर जागते हुए हम क्यों नहीं जानते कि जाग्रत अवस्था में देखा हुअा रूप विज्ञानमात्र है ? (शंकर, रारार) इसका उत्तर यह है कि जब हम स्वप्न देखते हैं हमको ज्ञात नहीं हो सकता | जागने पर हमको स्मृति हाता है कि हमने स्वप्न देखा है और हमको उसका स्वभाव ज्ञात होता है । इसी प्रकार जो रूप जाग्रत अवस्था में देखते हैं उसका भी यही हाल है। अभीतक हमारी सभी जापति नहीं हुई है। जब बोधि का अधिगम होगा तब संसार-विषयात्मक स्वप्न की स्मृति होगी और उनका यथार्थ स्वभाव ज्ञात होगा। इसके पूर्व हमारी स्वप्नावस्था है। इसीलिए भगवान् संसार की दीर्घरात्रि का उल्लेख करते हैं ( विंशतिका, कारिका १७ ख ग ) । यह विचार बर्कले के अति समीप है। इस मत में ( अमोलुट एकास्मिम ) वस्तु-ग्रहण के सदृश विशमि का क्रियात्मक श्राकार नहीं है । विज्ञप्ति मायावत् है । जब एक विज्ञान की उत्पत्ति होती है, तब यह विज्ञान वस्तुतः सक्रिय नहीं होता। यह बाह्य धर्मों का प्रत्यक्ष ग्रहण नहीं करता, जिस प्रकार हाथ या चिमटी से कोई वस्तु पकड़ी जाती है। इसकी अभिव्यक्ति उस प्रकार नहीं होती, जैसे सूर्य अपने प्रकाश को फैलाता है। किन्तु यह अादर्श के तुल्य है, और यह बाह्यार्थ के सहश अवमासित होता है । संक्षेप में कोई धर्म नहीं है जो दूसरे धर्म का ( चित्त से बहिःस्थित धर्म का ) ग्रहण करता है। किन्तु जब विज्ञान की उत्पत्ति होती है, तब यह तत्सदृश श्राभासित होता है (सन्धिनिर्मोचन)। किन्तु एक आक्षेप यह है कि विश्वप्तिमात्रता का पर-चित्त-चान से कैसे सामंजस्य होता है। अथवा इसी को दूसरे प्रकार से यो कह सकते हैं कि विज्ञप्तिमात्रता में मेरा चित्त या तथा- कथित मेरी आत्मा का चित्त तथाकथित पर-चित्त को कैसे नहीं जानता है इसका जो उत्तर दिया जाता है, वह कठिनाइयों से खाली नहीं है । किन्तु इसकी युक्ति कुछ कम अपूर्व नहीं है। हम अपने नित्त को पर-चित्त की अपेक्षा अधिक अच्छा नहीं जानते। क्यो। क्योंकि यह दो शान अशान से आच्छादित होने के कारण स्वविश्य की अनिर्वचनीयता को