पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/५६६

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w औद-धर्म-दर्शन श्रदय विज्ञानवाद नागार्जुन के शून्यतावाद से पृथक होता है, किन्तु प्रकाश्य रूप से स्वीकार नहीं करता। विशतिमात्रता पर कुछ आक्षेप और उसके अत्तर यदि बाह्यार्थ केवल आध्यात्मिक विज्ञान है जो बालार्थ के रूप में प्रतिभासित होता है, तो श्राप १. अर्थ के काल-देश-नियम का क्या व्याख्यान करते हैं ( देश-विशेष में ही पर्वत दिखाई पड़ता है), २. सन्तान के अनियम और क्रिया के अनियम का क्या व्याख्यान करते हैं ( सब लोग एक ही वस्तु देखते हैं, सब लोग जल पीते हैं) शुश्रान-चाँग एक शब्द में उत्तर देते है कि स्वप्न में जो दृश्य हम देखते हैं, उनका भी यही है। विज्ञानवाद और शून्यता के संबन्ध के विश्व में एक दूसरा प्रश्न है । क्या विशप्ति- मात्रता स्वयं शन्य नहीं है ? शुश्रान-च्चांग कहते हैं-नहीं, क्योंकि इसका ग्रहण नहीं होता (अग्राह्यत्वात् )। इसीलिए धर्मों का ग्रहण वस्तुसत् के रूप में होता है ( धर्ममाह का विपर्याम ), यद्यपि परमार्थतः यह केवल धर्मशन्यता है । हम मागाँई के असत्व से धर्म- शन्यता मानते हैं न कि अवाच्य और परिकल्पित रहित विज्ञप्तिमात्रता के असत्र के कारण । विशमिमात्रता को धर्मशभ्यता कहते हैं, क्योंकि यह परिकल्पित नहीं है। विशतिका (कारिका, १७) की वृत्ति से तुलना कीजिये:--कोई धर्मनैरात्म्य में प्रवेश करता है, जब उसको यह उपलब्धि होती है कि यह विज्ञमि ही है जो दि धर्मों के प्राकार में प्रतिमासित होती है। किन्तु अाक्षेप करनेवाला कहता है कि यदि सांथा धर्म नहीं है तो क्या वितिमात्र भी नहीं है? विज्ञानवादी उत्तर देता है कि हम यह नहीं कहते कि धर्मों के 'परमार्थतः असत्व की प्रतिज्ञा करने से धर्म-नैराश्य में प्रवेश होता है, किन्तु उनके परिकलित स्वभाव का प्रतिषेध करने से होता है । उनका नराम्य है, क्योंकि मा ग्राह्यणा हकमात्र नहीं है। हम श्रात्मा से उनका नैराम्प है (तन प्रारमना तेरा नैसम्यान )। ल मुद पुरुष उनका ग्राम-आहक भाव मानते हैं । किन्तु जो अनभिज्ञाप्य अान्मा बुद्धों का विषय है, उसका नैरात्म्य नहीं है ( वृत्ति, पृ०६)। संवृति-सत्य के विषय में भी माध्यमिक और विज्ञानवाद में अन्तर होने लगता है। माध्यमिकों के अनुसार संवृति-सत्य अर्थात् धर्मों का श्राभास जैसा कि इन्द्रियों को उपलब्ध होता है, अनधिठान है । शून्य धर्मों से शून्य धर्म प्रभून होते हैं। इसके विपरीत विधानवादी के लिए संवृति धर्मों का अस्तित्व धर्मता-तथता-विश के कारण है, यद्यपि साथ ही साथ वह शल्यता-विशेष-वश शल्य है। एक दूसरा श्राप है। यदि रूपायतन विज्ञान-स्वभाव है तो विज्ञान रूप के लक्षणों के साथ क्यों प्रतिभासित होता है, और क्यों पर्वतादि कठिन और सभाग-सन्तान का रूप. धारण करते हैं। इसका उत्तर यह है कि रूप पर्यस्त संशा का भी स्वभाव है। तथाकथित रूप को द्रव्यसत् के रूप में गृहीत करने से विज्ञान विपर्यास का ऊपाद करता है, और स्वरसेन भ्रान्ति उत्पन्न करता है और यही उसकी मुग्प वृत्ति है।