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४९२              बौद्ध-धर्म-दर्शन

करता है, क्योंकि माध्यमिक सांख्य-संमत पुरुष के दृष्टान्त में ही 'स्वात्मना विद्यमानत्व' हेतु के बल से स्वत:उत्पाद का निषेध सिद्ध कर देगा । सांख्यवादी यदि कहे कि उत्पाद के निषेध मुझ अभिव्यक्तिवादी का अनुमान बाधित नहीं होगा, यह ठीक नहीं है; क्योंकि अनुपलब्ध की उपलब्धि-अभिव्यक्ति और उत्पाद दोनों में समान है। इसलिए, उत्पाद शब्द से अभिव्यक्ति का ही अभिधान है । उत्पाद शब्द से अभिव्यक्ति स्वीकार करना अनुपात्त नहीं है, क्योंकि अर्थवाक्य विपुल अर्थों के द्योतक होते हैं । इसीलिए वे अपेक्षित समस्त अर्थ का संग्रह करके विशेष अर्थ के बोधन में प्रवृत्त होते हैं ।

यदि अनुमान के पक्ष, हेतु आदि प्रसंग से विपरीत अर्थों का बोधन करें भी, तो उससे माध्यमिक का क्या संबन्ध ? क्योंकि उसकी कोई स्वप्रतिज्ञा है नहीं है, जिससे उसके सिद्धान्त का विरोध होता हो । और फिर यदि प्रसंगविपरीतता की आपत्ति से परवादी के पक्ष में दोष आते है, तो वह माध्यमिक को अभीष्ट ही होगा । निःस्वभाववादी अपने अनुमान प्रयोग से सस्वभाववादी के अनुमान को जब दोषपूर्ण सिद्ध करता है, तब भी प्रयोग मात्र से प्रसंग विपरीतार्थता (अपने सिद्धान्त के विरुद्ध जाना) का दोष माध्यमिक पर नहीं लगेगा क्योंकि शब्द दाण्डपाशिक के समान वक्ता को अस्वतन्त्र नहीं बनाते, प्रत्युत वह वक्ता की विवक्षा का अनुविधान मात्र करते हैं । वस्तुतः माध्यमिक पर-प्रतिज्ञा के प्रतिषेध मात्र से ही सफल है ।

आचार्य प्रसंगापत्ति के द्वारा भी परपक्ष का निराकरण करते हैं । आचार्यगण मध्यमक- दर्शन को अंगीकार करके भी तर्कशास्त्र में अपनी अतिकुशलता अविष्कृत करने के लिए स्वतन्त्र अनुमान का प्रयोग करते हैं । इनके ऐसे अनुमान प्रयोगों से तार्किक पक्ष की ही दोष- राशि उपलक्षित होती है, जैसे-माध्यमिक का वह अनुमान-प्रयोग लीजिए, जिसमें वह सांख्य-संमत पुरुष के दृष्टान्त में अनुत्पाद के साथ विद्यमानत्य हेतु की व्याप्ति देखकर सर्वत्र आध्यात्मिक आयतनों का पारमार्थिक दृष्टि से अनुत्पाद सिद्ध करता है (आध्यात्मिकानि आयतनानि न परमार्थतः स्वत उत्पन्नानि, विद्यमानत्वात्, चैतन्यवत् ) ।

यहाँ प्रश्न उठता है कि माध्यमिक के इस अनुमान-प्रयोग में किस अर्थ की सिद्धि के लिए 'परमार्थत:' विशेषण है, क्योंकि लोक-संवृति ( लोक बुद्धि ) से स्वीकृत उत्पाद अप्रतिषेध्य होता है। किन्तु माध्यमिकों के मत में लोक-संवृति से भी भावों का स्वतःउत्पद सिद्ध नहीं होता । माध्यमिक से इतर मतावलम्बियों की अपेक्षा से भी यह विशेषण सार्थक नहीं है, क्योंकि माध्यमिक परमत की उत्पाद आदि व्यवस्था को संवृत्या भी कहाँ स्वीकार करता है ? यह भी नहीं है कि सामान्य जन स्वत: उत्पाद से प्रतिपन्न हो, जिनकी अपेक्षा से यह विशेषण सार्थक बने । वस्तुत: सामान्य जन स्वतः, परत: आदि के विचार में उतरता ही नहीं । हाँ, वह कारण से कार्य की उत्पत्ति की व्यवस्था अवश्य मानता है ।

यह हो सकता था कि जो लोग सांवृतिक दृष्टि से भावों की उत्पत्ति मानते हैं,उनके निराकरण के लिए परमार्थ विशेषण सार्थक हो । किन्तु इस दृष्टि से जो अनुमान का प्रयोग होगा, वह अवश्य ही पक्ष-दोष, हेतु-दोष से ग्रस्त होगा। पक्ष-दोष तो इसलिए होगा कि पारमार्थिक