पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बो-धर्मदर्शन सर्व शन्यतावादी के पक्ष में उपयुक्त दोष असंभव है। क्योंकि उसके पक्ष में प्रतीत्य- समुत्पाद हेतु-प्रत्ययों की अपेक्षा करके अंकुरादि या विधानादि के प्रादुर्भाव का सिद्धान्त है, बो पदायों को स्वभावतः अनुत्पन सिद्ध करता है। पदार्थों का स्वभावतः अनुत्पाद ही शून्यता है। इस शून्यता को ही उपादाय-प्रज्ञप्ति कहते हैं। जैसे-चक्रादि ( रथ के अंग ) का उपादान कर ( उपादाय) स्थ की प्राप्ति होती है। जो अपने अंगों का उपादान करने पर प्रास होता है, वह अवश्य ही स्वभावेन अनुत्पन्न होता है। जो स्वभावेन अनुत्पन है, वही शून्यता है । शून्यता ही मध्यमा-प्रतिपत् है। जिसकी स्वभावेन अनुत्पत्ति है, उसका अस्तित्व नहीं है । जो स्वभावेन अनुत्पन्न है, उसका नाश क्या होगा १ अतः उसका नास्तित्व भी नहीं है । इस प्रकार जो भाव और अभाव इन दो अन्तों से रहित है, और अनुत्पत्ति-लक्षण है, वह मध्यमा-प्रतिपत् ( मध्यम मार्ग ) है, वह शून्यता है । फलतः प्रतीत्य-समुत्पाद की ही ये विशेष मंगाएँ हैं-शून्यता, उपादाय-प्रचप्ति, मध्यमा प्रतिपत्' । उपयुक्त विवेचन से यह निश्चित हुआ कि जो प्रतीत्य-समुत्पन्न है, वह शून्य हैं । अतः कोई भी पदार्थ अशन्य नहीं है। अशन्यवाद ( सस्वभाववाद ) में जब सब अशून्य हैं, तो उसका उदय और व्यय नहीं होगा, और आर्य सत्य भी नहीं होंगे; क्योंकि जो प्रतीत्य- समुत्पन्न नहीं होगा, वह अनित्य नहीं होगा। किन्तु दुःख का लक्षण अनित्यता है । सस्वभाव- बाद में भावों की दुःख-समावता नहीं होगी, इसीलिए उसका समुदय भी नहीं होगा क्योंकि समुदय दुःख का हेतु है ( समुदेति अस्माद् दु:खमिति )। दु:ख के अभाव में उसकी उत्पत्ति के लिए हेतु की कल्पना व्यर्थ है। इसी प्रकार सस्वभाववाद में निरोध तथा समस्त श्रार्य-मार्ग बाधित होते हैं, क्योंकि स्वभावतः सत् दुःख का निरोध नहीं होगा, और मार्ग की भावना मी नहीं होगी। यदि वह भावना से भाव्य होगा, तो उसका स्वाभाव्य नष्ट होगा। इस प्रकार सस्वभाववाद में चार आर्य-सत्य नहीं होंगे। इनके अभाव में परिज्ञा, प्रहाण आदि किसके होंगे । इस प्रकार फल, फलस्थ प्रतिपन्नक तथा त्रिरत्न कुछ नहीं होंगे। स्वभाववाद में धर्म- अधर्म की व्यवस्था भी नहीं होगी, क्योंकि जो अशून्य होगा, वह कर्तव्य-कोटि में नहीं आयेगा, और विद्यमान होने के कारण उसका कोई करण नहीं होगा। इस प्रकार धर्माधर्म- मूलक फल भी नहीं होगा। यदि पदार्थ सस्वभाव होंगे, तो अकृत्रिम होने से किसी से व्यावृत्त नहीं होंगे, अतः संसार अजात और अनिरुद्ध होगा। जगत् कूटस्थ नित्य होगा। इसलिए, जो स्वभाव-शुल्यता- रूप प्रतीत्यसमुत्पाद को सम्यक् जानता है, वही श्रार्य-सत्य श्रादि को तत्वतः जानता है। ..पा प्रतीत्यसमुत्पादः शून्मतो तो प्रचक्षते । सा प्रतिसादाप प्रपिसेव मण्यमा || (R0.11)