पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५३

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विंश अध्याय विषय-प्रवेश भारतीय सभ्यता का स्वर्णयुग पांचवीं से सातवीं शताब्दी तक है । इस युग में बौद्ध दर्शन में मौलिक परिवर्तन हुआ । न्याय तथा ज्ञान-मीमांसा उसकी गवेषणा के मुख्य विषय हो गये । इस परिवर्तन का बौद्धधर्म पर सामान्यत: बड़ा प्रभाव पड़ा। इस युग के तीन सूर्य जिन्होंने अपनी प्रतिभा और प्रकाण्ड विद्वत्ता से संसार को देदीप्यमान किया-वसुबन्धु, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति थे। वसुबन्धु ने न्याय पर कुछ अधिक नहीं लिखा । उनके शिष्य दिङ्नाग प्रमाणसमुन्नयवृत्ति में कहते हैं कि इस विषय में वसुबन्धु की अभिरुचि नहीं थी। उन्होंने वादविधान नाम के एक अन्य की रचना की थी, जिसमें संक्षेप में न्याय के कुछ प्रश्नों का उल्लेख मिलता है । दिङ्नाग के सिद्धान्त के बीज अभिधर्मकोश में यत्र तत्र पाये जाते हैं, किन्तु दिङ्नाग ने सबसे पहले इनको एकत्र कर एक सिद्धान्त में प्रथित किया, और धर्मकीर्ति ने उसको एक निश्चित रूप प्रदान किया । दिङ्नाग ने न्याय के विभिन्न प्रश्नों पर छोटे छोटे कई प्रन्थ लिखे थे, जिनको उन्होंने प्रमाणसमुच्चय में संग्रहीत किया । धर्मकीति ने न्याय पर सात ग्रन्थ लिखे--एक मूल और छः पाद । इनके नाम इस प्रकार हैं-प्रमाण वार्तिक, प्रमाण- विनिश्चय, न्यायबिन्दु, हेतुबिन्दु, संबन्धपरीक्षा, चोदनानामप्रकरण और सन्तानान्तरसिद्धि ! नागार्जुन ने अपने ग्रन्थ विग्रहव्यावर्तनी में प्रमाण-अमेय, लक्ष्य-लक्षण श्रादि का खण्डन किया है, और उन्होंने माध्यमिक-कारिका में जिस प्रौढ़ तर्क-पद्धति से वादियों के पक्ष का खएडन किया है, उससे भी इसका अनुमान होता है कि उनको तर्क की किसी शास्त्रीय पद्धति से परिचय था। वसुबन्धु का वादविधि या वादविधान नाम का कोई प्रमाण प्रन्थ अवश्य था, जो अभी अनुपलब्ध है । न्यायवार्तिक और तात्पर्यटीका श्रादि में पूर्वपक्ष के रूप वसुबन्धु के प्रमाण लक्षणों को उद्धृत किया गया है। किन्तु उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही कहा जा सकता है कि न्याय क्षेत्र में बौदों ने कुछ पीछे प्रवेश किया । जब दिङ्नाग ने प्रमाणसमुच्चय की रचना की तब प्रमुख भारतीय-दर्शन पहले ही न्याय के मौलिक प्रश्नों पर अपना मत प्रतिपादित कर चुके थे। प्रत्येक दर्शन को अपनी पुष्टि के लिए न्याय तथा ज्ञानमीमांसा ( लॉजिक एण्ड एपिण्टेमोलॉनी ) की श्रावश्यकता प्रतीत हुई । इसलिए प्रत्येक दर्शन की अपनी शान-मीमांसा और तदनुकूल अपना न्याय है। चार मौलिक, दृष्टियां श्रारंभ से ही भारतीय-दर्शन में विद्यमान रही है-श्रारंभवाद, संघातवाद, परिणामवाद और विवर्चवाद । इनमें से संघातवाद बौदों का पक्ष है। केवल धमों (एलीमेंट्स)