पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६९९

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चिम्पाव विषय हो तो अनुपलम्म निश्चयहेतु नहीं है, किन्तु संशयहेतु है। अतः सर्वश में वक्तृत्व का असल्व संदिग्ध है। प्रतिवादी कह सकता है कि यह अनुपलब्धि नहीं है, जिसके कारण वह कहता है कि सर्वर में वक्तुत्र का अभाव है, किन्तु वह ऐसा इसलिए कहता है, क्योंकि सर्वशता का वक्तृत्व से विरोध है। हमारा उत्तर है कि विरोध नहीं है। इसलिए यह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सन्देह है, विरोध का अभाव है। इसलिए सन्देह है । सन्देह के कारण व्यतिरेक की असिद्धि है। विरोध का अभाव कैसे है ? विरोध विविध हैं, अन्य प्रकार का नहीं है। विरोध विरोध क्या है ? यदि कारण-वैकल्य से किसी का अमात्र होता है, तो उसका किसी से विरोध नहीं होता । किन्तु जब तक समग्र कारण अविकल रहते हैं, तब तक उस वस्तु की निवृत्ति कोई नहीं कर सकता। इसलिए उसका कोई विरोध कैसे कर सकता है। किन्तु निम्न प्रकार से यह संभव है। अविकल कारण के होने पर भी जिसके द्वारा कारण-वैकल्य होकर प्रभाव होता है, उससे विरोध है। ऐसा होने पर जो जिसके विरुद्ध है, वह उसको क्षति पहुँचाता है । यदि कोई शोतस्पर्श का जनक होकर अन्य शोतस्पर्श की जनन शक्ति में प्रतिबंध होता है, तो वह शीतपशं का निवर्तक होता है, और इस अर्थ में विरुद्ध है । अतः हेतु वैकल्य का करने वाला जो निवर्तक है, वह विरुद्ध है। एक ही क्षण में दो विरुद्धों का सहावस्थान संभव नहीं है। दूरस्थ होने से विरोध नहीं होता। अतः निकटस्थ का ही निवयं-निवर्तकमाव होता है। इसलिए जो जिसका निवर्तक है, वह उसको तृतीय क्षण से कम में नहीं हटा सकता । प्रथम क्षण में सनिपात होता है। द्वितीय में वह विरुद्ध को असमर्थ करता है। तृतीय में असमर्थ निवृत्त होता है और वह उस देश को श्राकान्त करता है। उष्णस्पर्श से शीतस्पर्श की निवृत्ति होती है। इसी प्रकार आलोक बो गतिधर्मा है, क्रमेण जलतरंगवत् देश को अाक्रान्त कर अन्धकार में निरन्तर श्रालोक क्षण उत्पन्न करता है। तब श्रालोक का समीपवर्ती अंधकार असमर्थ हो जाता है । तदनन्तर उसकी निवृत्ति होती है और अन्धकार क्रमण श्रालोक से अपनीत होता है। जब पालोक उस अंधकार देश में उत्पन्न होता है, तब जिस क्षण से बालोक का जनक क्षण उत्पन्न होता है उसी क्षण से अंधकार अंधकारान्तर के जनन में असमर्थ हो जाता है। अतः जिस क्षण में जनक होता है, उगसे तीसरे क्षण में अंधकार निवृत्त होता है, यदि शीघ्र निवृत्त हो। यह दो सन्तानों का विरोध है, न कि दो क्षणों का। यद्यपि सन्तान नाम की कोई वस्तु नहीं है, तथापि सन्तानी वस्तुभूत हैं। अतः परमार्य यह है कि दो क्षणों का विरोध नहीं है, किन्तु बहुक्षणों का । जब तक दहन के क्षण रहते हैं, तब तक शीत क्षण प्रवृत्त होते हुए भी निवृत्त होते हैं। अब हम दूसरे प्रकार का विरोध दिखलाते हैं। जिन दो का लक्षण परस्पर परिहार का है उनका भी विरोध होता है। नौल के परिच्छिद्यमान (नील का शान) होने पर