पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/७०२

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दोन उन हेतु दोषों को समझाकर जो एक रूप (प्रथम या तृतीय) के प्रसिद्ध या संदिग्ध होनेपर होते हैं, अब हम उन हेतु दोषों को कहते हैं, को दो रूप के असिख या संदिग्ध होने पर होते हैं। जब दो रूप का विपर्यय सिद्ध होता है तो हेतु दोष को 'विरुद्ध कहते हैं। यह दो रूप कौन है। सपक्ष में सत्व और प्रसपक्ष में असल। यथा मृतकत्व विरुद्ध हेत्वाभास होता है, यदि नित्यत्व साध्य है। यथा प्रयत्नानन्तरीयकत्व (प्रयत्न के बिना जन्म या शान ) विरुद्ध हेत्वाभास होता है यदि नित्यत्व साध्य है। यह दो विरुद्ध क्यों है। क्योंकि सपद में असत्व और असपक्ष में सत्व है। यह निश्चित है कि न कृतकत्व और न प्रयत्नानन्तरीयकत्व सपक्ष में अर्थात् नित्य में होते हैं। दूसरी ओर उनकी विद्यमानता विपक्ष में ही अर्थात् अनित्य में निश्चित है। अतः विपर्यय की सिद्धि होती है। पुनः ऐसा क्यों है कि जब विपर्यय की सिद्धि है तो हेतु विरुद्ध होते हैं। यह विरुद्ध है, क्योंकि उनसे विपर्यय की सिद्धि होती है । वह नित्यत्व ( साध्य) के विपर्यय (अनित्यत्व ) को सिद्ध करते हैं। क्योंकि वह साध्य के विपर्यय का साधन है, इसलिए वह विरुद्ध कहलाते हैं। यदि यह दो हेतु विरुद्ध हेत्वामास है, क्योंकि वह विपर्यय को सिद्ध करते हैं, तो परार्यानुमान में साध्य उक्त होना चाहिये। यह अनुक्त नहीं रह सकता, किन्तु अनुछ भी कभी-कभी इष्ट है। अतः वह हेतु नो इष्ट का विधात करता है, इन से से अन्य होगा। इसलिए एक तूतीय प्रकार का विरुद्ध है। दो विपर्यय के साधन है। तीसरा अनुक्त इष्ट विधात करता है। उदाहरण-चक्षुरादि (धर्मी)। परार्थ का उपकार करते हैं ( साध्य)। हेतु क्योंकि यह संचित रूप है। यथा शयन आसनादि पुरुष के उपभोग्य वस्तु है। यह हेतु इष्ट विधात कैसे करता है। यह विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि यह वादी के इष्ट का विपर्यय सिद्ध करता है। यह सांस्यवादी है। असंहत के लिए संघात रूप का अस्तित्व इसको हम है। इसका विपर्यय संहत के लिए, अस्तित्व है। क्योंकि यह विपर्यय को सिद्ध करता है। इसलिए हेतु साधन से विरुद्ध है। सख्यिमतवादी कहता है कि प्रात्मा है। बौद पूछता है कि क्यों ? यादी प्रमाण देता है। इस प्रकार साध्य है कि असंहत श्रात्मा के चक्षुरादि उपकारक है। किन्तु या हेतु विपर्यय से ध्यास है, क्योंकि जो जिसका उपकारक होता है वह उसका जनक होता है और कार्य (जन्यमान) युगपत् या क्रम से संहत होता है। इसलिए "चक्षुरादि परार्थ " का अर्थ है कि वह सेहत पार्थ न कि असंहत परार्थ ।