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प्रस्तावना

रीति-परम्परा के कवि और आचार्य ग्वाल व्यापक काव्य-चेतना से सम्पन्न काव्यकार हैं। जिन्हें भारतीय इतिहास का ज्ञान है वे इस तथ्य से सहमत होंगे कि उनके अन्तिम दिनों में भी आधुनिक नव-जागरण अथवा दूसरे शब्दों में सांस्कृतिक पुनरुत्थान का आरम्भ नहीं हुआ था। उनके मृत्युकाल (सं॰ १९२४ या सन् १८६७ ई॰) में भारतेन्दु जी ने अपनी कलम संभालो ही थी और आरम्भ काल के लगभग चौदह वर्षों तक उनके नाटक और कविताएँ मध्यकालीन चेतना के ही परिचायक थे। तदनन्तर 'भारत दुर्दशा' नाटक और मुकरियाँ निश्चय ही आधुनिकता की धरती पर प्रतिष्ठित कही जा सकती हैं। जहाँ तक हिन्दी कविता की प्रधान धारा का विषय है वह द्विवेदी युग के आरम्भ तक रीतिकालीन चेतना से मुख्यतः जुड़ी रही है। अन्तर इतना ही है कि सन्दर्भ की दृष्टि से भारतेन्दु युग में दरबारी काव्य के स्थान पर गोष्ठी काव्य की रचना आरम्भ हो गयी, किन्तु प्रवृत्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं परिलक्षित होता। हिन्दी क्षेत्र में जब देशी राज्य और उनके दरबार ही न रहे हों, तो यह स्वाभाविक ही था। जहाँ तक कविता में मिलनेवाली घनाक्षरी-कवित्त-सवैया की शैली, शब्द-चयन, अलंकार-योजना, वाग्विदग्धता आदि विशेषताओं का ही विषय है द्विवेदी युग के आरम्भ तक की हिन्दी कविता प्रधानतया मध्यकालीन काव्य-चेतना से ही परिलक्षित है।

उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में हम ग्वाल कवि के कविता काल तथा निजी कृतित्व की पूर्ववर्ती तथा परवर्ती परम्परा का निदर्शन कर सकते हैं और इस निदर्शन के प्रकाश में डॉ॰ (कु॰) प्रेमलता बाफना द्वारा प्रस्तुत कवि के मूल्यांकन को यथेष्ट न्याय पावना दे सकते हैं। रीति और भक्ति काव्य ग्वाल के पश्चात् भी लिखा गया है और उसकी पुष्कल-सामग्री गुणवत्ता में ग्वाल को कविता से निर्बल भी नहीं कही जा सकती। कवि गोविन्द गिल्लाभाई, दत्त द्विजेन्द्र, रसराशि, द्विजदेव जैसे समर्थ कवियों को यहाँ स्मरण करा देना पर्याप्त होगा। अतः रीतिकाव्य की सीमा रेखा उनके कविता काल की समाप्ति से खींच देना नितान्त उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। आचार्यत्व के भी साक्ष्य ग्वाल के बाद में प्राप्त होते हैं, फिर भी ग्वाल के विषय में डॉ॰ कु॰ बाफना की एतद्विषयक स्थापना को एक प्रकार से सटीक कहा जायेगा। उन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक 'भक्तभावन' संग्रह की छोटी-बड़ी कृतियों का पाठालोचन प्रस्तुत करके रीति-परम्परा की एक अल्पज्ञात और एक प्रकार से अज्ञातप्राय कड़ी को प्रकाश में लाने का प्रयास किया है। भूमिका में कवि के कृतित्व के समग्रतया मूल्यांकन का संकेतमात्र देकर उन्होंने अपने विवेचन को इन्हीं कृतियों तक सीमित रखा है। यह विवेचन विषयवस्तु का सम्यक् विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

क्रमशः प्रकाश में आनेवाले अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं शताब्दी ईस्वी तक की रीतिकालीन कविता का जितना विस्तृत अध्ययन प्रकाश में आया है, परवर्ती एक शती के कवियों और उनकी कृतियों पर