पृष्ठ:भक्तभावन.pdf/१२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९६ : भक्तभावन
 


कवित्त

जाने क्यों न जिय में प्रमाने क्यों न राधे पद। आने क्यों न हिय में सराइसो वसेरो भव।
पंचभूत जाइके मिलेंगे पंचभूतन में। दूतन के घेरे यों कहेंगे मिलि घेरो सब।
ग्वाल कवि रचासा की न आसा कछु राखे यह। आई बान आई रार समुझि सबेरो अब।
माने जो न एके आज काल में अकाल काल। काल करि लेहे सतकाल काल तेरो तब॥६॥

कवित्त

जानि पर्यो मोकों जग असत अखिल यह। ध्रुव आदि काहू को न सर्वदा रहन है।
यामें परिवार व्यवहार जीत हारादिक। त्यागकर सबही विकरि रह्यो मन है।
ग्वाल कवि कहे काइ रह्यो न मेरो क्योंकि। काहू के न संग गयो तन धन है।
कियो में विचार एक ईश्वर ही सत्य नित्य। अलख अपार चारु चिदानन घन है॥७॥

कवित्त

राम घनस्याम के न नाम ते उचारे कभू। कामवस है के वाम भरे बाँह डाली है।
एक एक स्वांस ये अमोल कढ़े जात हाय। लोल चित्त यहै ढोल फोरत उताली है।
ग्वाल कवि कहे तू विचारे वर्ष बढ़े मेरे। एरे घटे छिन आयुकी बहाली है।
जैसें धार दीखत फुहारे की बढ़त आछे। पाछें जल घटे हौज होत आवे खाली है॥८॥

कवित्त

आयो तू कहाँ ते उपजायो कौन कौन विधि। पालि बढ़ायो कहो कौन करकस तें।
कोन सों करार कौन कौन करि आयो फेर। आयकें भुलायो छक्यो काम वरकस ते।
ग्वाल कवि कहे तें न आप में विलोक्यो ब्रह्म। जुदों हूँ न जानि भज्यो भज्यो अरकस तें।
स्वास स्वास माँहि स्वास अंग तें कढ़त ऐसें। जैसें जंग परे कढ़े तीर तरकस तें॥९॥

कवित्त

रंक जात कीने पंकजात जाके नैनन में। ऐसें स्याम गात के न ध्यान में समात है।
चंदमुखी साम्हने दिखात हरखात ख्यात। संपति जमात में भुलात हुलसात है।
ग्वाल कवि जीवन के तातमात तातभ्रात। खोवे तिन घात नरदेही करामात है।
यह मतजाने दिन जात रात जात भैया। बात बात मांहि बात जात बात जात है॥१०॥

कवित्त

जोइ सन तनक न भूमि में लगन हुते। सोई तन भूमि खोदि गाड़े नोन संग में।
जोइ तन तन कसके न छूय कोई नर। सोई तन गीध स्वान चीथत उमंग में।
ग्वाल कवि जो तन दुशालन लपेटे हुते। सो तन जरत देखे चेतिका उतंग में।
जोई तन अतरन के होज में तरे है सोई। सुवासे तरल डोले तोप के तरंग में॥११॥