कवित्त
साथी सब स्वारथ के हाथी हय हेत वारे। हाथ पाँय अंय में भरोसो है न ताहू को।
माता पिता भ्राता मीत नाता रह्यो ताता पूर। पूत अपनो है में विस्वास है न जाहूको।
ग्वाल कवि सुख में सुने ही है सभी के सब। दुख की दरेहन में होत है पनाहू को।
मासे उरधार एक रामे प्रखवार तेरो। रामे रखवार बोर कोक है न काहू को॥१२॥
कवित्त
तात कहे तात अरु तात करे तात मेरो। भ्रात कहे भ्रात मेरो जात जात जपनो।
ताई कहे मेरो अरु भाई कहे मेरो लाल। बाल कहे वाह यह मेरो बाल थपनो।
ग्वाल कवि कहे कहे सासुरे जमाई मेरो। भैन कहे भाई मेरो दाई कहे ठपनो।
तजिकैं विवेक नेक सजिकैं कुटेक लेखो। देखो जीव एक कों अनेक माने अपनो॥१३॥
कवित्त
पापन की पारी लेउवारी उरधारी सदा। वृत्ति न सुधारी कहो मोसो और कोन है।
तारी कहवाई जोन मेरी तुम तारी बात। ये ही अफसोस कहो ऐसो और कौन है।
ग्वाल कवि गनिका उधारी नाम प्रनधारी[१]। ये ही आसभारी औ भरोसो और कोन है।
नारी जो विपति बारी सिला ही विपतिवारी। करी सो विपत्तिवारी तोसो और कौन है॥१४॥
कवित्त
रीझन तिहारी न्यारी अजब निहारी नाथ। हारी मति व्यास हू की पावत न ठौर है।
नाम लियो सुत को सो हिते को विचार्यो नित। गनिका पढ़ायो शुक तापें करि दौर है।
ग्वाल कवि गौतम की नारी ह्वै शिला सरूप, कियो कब तरिबे को कहो कौन तौर है।
पति को पतारी हुति पातिक कतारी ताहि। तारी तुम राम तारी तुमसो न और है॥१५॥
कवित्त
कवित्त
अस्यो ग्राहराज ने गहकि गजराज भोटे। बलके भरोंसें रोसें जोसें जीउ महतो।
ग्राह खैंचे जलमाहि गज खैंचे बल मांहि। खल बल भाच्यो जल उछलत वहतो।
ग्वालकवि तब गज लेके सुण्ड–पुण्डरीक। तुण्ड करी ऊँचो कही हरि मोहि गहतो।
त्योंही चल्यो चक्र हरि चक्रधर चिते परै। नहिं तो गरीबन निवाज कौन कहतो॥१७॥