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गोपी पचीसी : ३५
 


अथ पुनः गोपी बचन ऊधौ प्रति
कवित्त


कहिबें कों हमतो वियोगिनी विदित नित, सरस संजोग हूते सुमति सुधारी है।
ऊधौ तोहि वहाँ इहाँ कहूँ न लखाई पर्यो, सांचे ही अलख तोहि भयो गिरधारी है।
ग्वाल कवि हयां तो वही जाम जाम घाम धाम, मूरति मनोहर न नेक होत न्यारी है।
कानन में, आनन में, प्रानन में, मौखिन में, अंगन में रोम रोम रसिक बिहारी है॥२४॥

अब ऊधौ बचन श्रीकृष्ण सो
कवित्त


रावरें कहेंते हों गयो हो ब्रजबालन पें, देखते ही मोहि कियो आदर अपारा है।
कहते तिहारी बात गात ते भभूके उठी, परत बारूद की जमात ज्यों अंगारा है।
ग्वाल कवि बहे लागी लपट दवागिन सी, दौर्यों में तहां तें तोऊ झुरसो दुबारा है।
गोपी विरहागिन में जोग उडि गयो ऐसें, जैसें उड़िजात परे पावक में पारा है॥२५॥

इति श्री गोपी पचीसी संपूर्ण