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पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१०

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भट्ट जी के 'हिन्दी-प्रदीपा में प्रकाशित लेखों की समालोचना भी अकसर अन्य पत्र-पत्रिकाओं में होती रहती थी। 'श्री बैंक- टेश्वर-समाचार', 'हिंठी-बंगवासी', 'समालोचक इत्यादि पत्रों में कभी- कभी इनके विषय में कटूक्तियां लिखी गई । भट्ट जीने भी उनका समु- चित उत्तर दिया और उनकी खूब खरी गहरी चुटकियाँ ली। भट्ट जी अनेक कठिनाइयों और आर्थिक सकटों को सहन करते • हुए ३२ वर्ष तक जिस, निर्भीकता के साथ हिन्दी प्रदीप निकालते रहे, यह हिंदी पत्रों के इतिहास मे सदा चिरस्मरणीय रहेगा । अाजकल के हिंदी सम्पादकों के लिए उस समय के हिंदी सम्पादकों की कठिनाईयों का अनुमान कर सकना भी असम्भव है। 'हिन्दी-प्रदीप' के मुख्य ग्राहकों की संख्या कभी दो सौ से अधिक नहीं हुई। भट्ट जी बराबर । घाटा उठाते रहे, पर उन्होंने पत्र बन्द नहीं होने दिया । वे कायस्प- पाठशाला कालेज में संस्कृत के अध्यापक थे। जो कुछ वेतन मिलता था वद पूरा का पूरा हर महीने सीधे प्रेस का बिल चुकाने में चला जाता था और कभी-कभी तो महीने के प्रारम्भ में ही अपनी सारी तनख्वाह प्रेसवालों को ही देकर छछे हाथ घर पाते थे । पाठकों को यह सुनकर श्राश्चर्य होगा कि उन्होंने ३२ वर्ष तक पत्र का सम्पादन किया किन्नु, जीवन भर में शायद ही कभी कोरे कागज पर लिखा दोगा। वे अपने तमाम लेख इम्तिहान की कापियों की दूसरी ओर के कोरे प्रश पर अथवा समाचार-पत्रों के रैपरों पर लिया करते थे। उन का सारा जीवन ही लक्ष्मी और सरस्वती की परस्पर प्रतिस्पर्धा का.एक शक्ति उदाहरण था। भट्ट जी किसी गरीब कुटुम्ब में पैदा हुए हों, यह बात न थी। उनने पिता और भाई व्यापार करते थे। शहर में जायदाद भी थी। पर उनको पिता और भाई के धन की स्वप्न में भी चाहन थी। कहना न होगा कि महजी किन-किन मार्थिक संकटोको उठाते ।