दीर्घायु भोग-विलास का सुख अनुभव करे। जो शरीर से स्वस्थ और सब भांति सुखी हैं उनको यह इच्छा होना कोई अचरज नहीं है। किन्तु जो रोग से पीड़ित और बड़े-बड़े दुख सह रहे हैं उनका भी रोग से । छुटकारा पाना और सुख भोगने का समय कभी पाने की आशा दीर्घायु होने की इच्छा को प्रबल करती है- ', कल्याणी वत् गाथेय लौकिकी प्रतिभाति मे।' . ' एति जीवन्तमानन्दो नर वर्षशतादपि ॥ लोगों की यह कहावत हमे बहुत ठीक मालूम होती है कि । मनुष्य जीता रहे तो एक न एक दिन वैसा सुख उसको श्रा उपस्थित होता है कि उसके सुख का वह पलरा दुख के उस पलरे के बराबर हो जाता है जिसे वह तमाम जिन्दगी भर सहा किया। और यह आशा बड़े-बड़े दुखियाओं को जीने की ओर से निरुत्साह होने से रोकती है। लोग दुख में पड़ कहते हैं, मुझ अभागे को मौत भी नहीं आती। कितने तो दिन में कई बार ऐसा कह उठते हैं । जरा-सा झंझट और तरदुद या सकट आ पड़ा कि मौत का आवाहन करने लगते हैं। पर यदि कोई उन्हें यह निश्चय करा दे कि कल तुम मरोगे तो रंग फीका पड़ जाता है, ऑषु वहाने लगता है । इसे आप चाहे मोह कहो, माया मे पडना कहो, अज्ञान कहो यो जीवनाशा कहो, कड़े से कड़े आदमी का भी उस समय जो पिंघल कर नरम पड़ जाता है। यद्यपि कवि सिरमौर कालिदास का कथन है- ___ "मरणं प्रकृतिः शरीरिणां विकृति वनप्नुच्यते बुधैः ।। शरीरधारी के लिये मरण प्राकृतिक है, उसका जीता रहना ही प्रकृति के विरुद्ध है, पर जीवनाशा कवि के इस कथन,पर कभी नहीं किसी का ध्यान जमने देती । मनुष्य एक ऐसा संयोग-सहचारी जीव है कि जब से मों के पेट से निकल धरती में पांव रक्खा कि संयोग-सुख का अनुभव करने लगता है। वियोग का विचार और चर्चा भी उसे
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