जगत-प्रवाह १२३ -शक्ति है कि कोई कितना ही इस प्रवाह से बचा चाहे, नहीं बच सकता । सच है- श्रादित्यस्य गताग रहरहः संक्षीयते जीवितम् , व्यापारैबहुकार्यभार गुरुभिः कालोपि न ज्ञायते । - इष्टजन्सजराविपत्तिमरणं ब्रासश्च नोत्पद्यते, पीवा मोहमयी प्रमाद-मदिरामुन्मत्त भुतं जगत् ॥ सूर्य देव के प्रति दिन उदय और अस्त से आयुष्य घटती जाती है। कार्य के बोझ से लदे हुये अनेक व्यापार मे व्यापृत, वारवार जन्म लेना, बुढ़ा जाना, अनेक प्रकार की विपत्ति और मरण देख "किसी को त्रास नहीं होता । मोहमयी प्रमाद मदिरा को पीकर संपूर्ण जगत् उन्मत्त हो रहा है । इस तरह के महाप्रवाह पूर्ण भव-सागर के पार होने को धैर्य एक मात्र उत्तम उपाय है। सच है "धीरज धरै सो उतरै पारा" और भी भारत के वनपर्व में इस जनन-मरन महा नदी 'के प्रवाह का बहुत उत्तम रूपक दर्साय धैर्य को नौका-रूप एक मात्र अवलब निश्चय किया है, यथा- कामलोममहाकीणी पंचेंद्रिय जला नदीम् । नावं तिमयीं कृत्वा जन्म दुर्गाणि सन्तर ॥ भांति-भांति की कामना और लोभ, नक्र, मक्र पूर्ण पॉच इद्रियों के विषय जिस नदी का जल रूप प्रवाह है उसके पार जाना चाहे तो "धैर्य की नौका पर चढ़ फिर फिर जनन-मरन के क्लेश से छूट सकता अप्रैल १८६७
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