पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१४५

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___२६ - लोक-एषणा " यह लोक-एषणा या लोक-रंजन ऐसी बला है कि कैसे ही श्राप चोखे से चोखे सच कहनेवाले या, सच्चा वर्ताव रखनेवाले हों कुछ न कुछ बनावट किये बिना चली नहीं सकता। हाँ, विरक्त बन केवल फल-फूल, कन्दमूल, शाकाहार से निर्वाह कर जनसमाज से दूर रहा. कहीं निर्जन बन में जा बसिये तो अलबत्ता संभव है कि इस घृणित लोक-रजना या दुनियासाजी से कदाचित् बचे रह सकते हो। किन्तु श्रादमियों के दंगल में बस श्राप का शुद्ध अलौकिक चोखा होना- -शहनाई का बजाना और चने का चवाना है । बुद्धिमानों ने जिसे शुद्ध- परमार्थिक और निरा अलौकिक निश्चय कर रक्खा है, लौकिक या लोक-रंजन उसमे भी जा घुसा और यहाँ तक उसे विगाड़ डाला कि शुद्ध परमार्थ की उसमे कहीं महक भी न बच रही। दंभदेव की व्यापक शक्ति को सोष्टाग प्रणाम है, जिसके जाल में बड़े-बड़े विरक्त और मुक्त भी फंसे हुये काठ की पुतली से नाच रहे हैं । कभी को ऐसा भी होता है-मौन, रहना, जटा रखाना, तिलक और मुद्रा से देह भर चीत डालना श्रादि, ढकोसले जो अलग-अलग दंभ के एक- एक प्रकार हैं, ईश्वर सानुकूल हुआ तो जीविका और पेट पालने के द्वार हो जाते हैं। कभी को अजितेन्द्रियों को नहीं भी होते- "मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्मव्याख्यारहोजपसमाधय प्रापवाः । प्रायः परम पुरुषते स्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्स्युत नवाऽवतु दामिकानम्॥ . हम तो यही कहेंगे कि जो इस दुनियासाजी के जाल मे नहीं फंसा वही बड़ा ज्ञानी, बड़ा तपस्वी, बड़ा संयमी, श्रद्धालु, भक्त, और जीवन मुक्त है। इससे छुटकारा पाना ही योगीश्वरों की सिद्धियाँ हैं । पागल, .