१३४ . . . . भट्ट-निबन्धावली महर करते हुये अपने कलुषित-चरित्र की छिपी-सी-छिपी गन्ध से उस . मधुप, को महीनों के लिये रुपना पाहुना बनाने को प्रस्तुत हैं। उधर " 'वहाँ की केतकी, सेवती, मालती. चमेली अलग ही हवा में झोंके लेती : इशारे से उसे निमन्त्रित कर रही हैं । मधुप पहले तो बड़े चाव से वहाँ विराम करता रहा और यही आशा लगाये था कि इन गुलाब-केवड़ों; की सौरभ का मनमानता स्वाद उसे मिलेगा; किन्तु बहुत ही जल्द । इससे निराश हो जाना पड़ा । सच है- ' सहवासी विजानीयाचरित्र सहवासिनाम " . “सोना.परख कसे आदमी परख वसे । वल्कि, इस श्राशा-भङ्ग की उसे असह वेदना सहनी पड़ी और यह कहावत याद आई-ऊँची दूकान के फीके पकवान होते हैं । ' पछताते हुए भांति-भाँति की कल्पनाएँ और अनेक तरह के विचार इसके मन में उठने लगे कि ईश्वर ही रक्षक है; जो यही दशा है तो कै दिन इस ऊँची दूकान का ऊँचापन निभ सकता है। अस्तु, मधुप ।। को तो अपना काम साधने से प्रयोजन, था। जैसी उसे शिक्षा मिली, थी, उसी के अनुसार गुलाब और उसके परिकरों की लीला का अनु- भव करने लगा। उन परिकरगणों में एक, उसे वहीं देख पड़ा जो ' उस्तादी, सयानेपन और मक्कारी में , अपने साथियों में सबों के कान . काटे था। उमर ४० के ऊपर डॉक गया था, पर हुस्न और वजेदारी में अपने को १८ वर्ष का गभरू जवान माने हुये था। इसे अपने हुस्न - का गरूर कुछ उचित भी मालूम होता था, क्योंकि उमर इसकी इतनी धस गई थी सही, पर सिर के बाल कहीं एक भी सुफेद न हुये थे। . इसके गोरे चेहरे पर गुलाल की लाल बिन्दी बहुत ही भली लगती थी। मोटे नोठों पर पान की ललाई विद्रुम को श्रामा और कुन्द की कलियों से उतार चढ़ावदार 'दांतों की दोनों पति मानो मोतियों को दो लाड़ियों थी। चेष्टा और कार से तो यह कोई ऊंची जाति का ।
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