३०---मधुप 'मधुप ! तेरे लिये सब संसार भर ऐसी रमणीक और मन लुभाने , वाली वाटिका है कि इसमें घूम-घूम तू हर तरह के मकरन्द का स्वाद .. लेता हुआ स्वच्छन्द विहार कर सकता है। पर देख-खबरदार,सांव- धानी रखना, केवल मकरन्द के पान से काम रखना। तुझे क्या पड़ी है कि किसी तरह की छेडछाड कर या अपनी राय जाहिर कर कि उस बगीचे की फलानी क्यारी के फूल भले या बुरे हैं। हाँ, वहाँ तुझे बहुत से कठोले वृक्ष भी मिलेंगे जहाँ तुझे सर्वाड कंटक-विद्ध हो जाने की संभावना है। तो तुझे क्या प्रयोजन कि उन कटीले पेड़ों से अधिक घिष्ट-पिष्ट कर अपने को दुखी बनावे । अच्छा तो अब तू जा, तेरा सब भौति मङ्गल और स्वस्ति हो- "वमनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु स्वरितसमागमः" - अपने काम मे भरपूर चालाक और सयाना यह मधुप बिदा हो - • पहले-पहल इस बाटिका की एक ऐसी क्यारी में जा पड़ा जहाँ के फूलों की मीठी और तीखी सुवास इसके मन को महीनों और बरसों से जुमा रही थी। क्यारी क्या वल्कि यह एक पूरा गाटे का गाटा था और इस मनोहर वाटिका के बीचो बीच में था,। कहने को तो यह एक ही गाटा था, पर उसमें कई-एक जुदी-जुदी क्यारियों कर दी गई थीं। और इनमे ऐसे-ऐसे गुल खिले हुये थे जिनकी सुबास मधुप को महीनों ' .विलमा रखने को काफी थी। ' मधुप बड़ी देर तक इसी असमञ्जस मे पड़ा हुआ था कि पहले इनमें किस ओर झरे और किस अनोखे मकरन्द का पान करें। थोड़ा , संकल्प-विकल्प और जहा-पोह के उपरान्त यह एक ओर मुफ पड़ा और देखा तो वहाँ के मदमाते गुलाब केवड़े निराले ढग पर महर- .
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