पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मधुप - - १३७ ।। - मधुप जो चुपचाप मौन साधे यह सब लीला देखता रहा, चित्त मे बहुत ही घिनाया और कहने लगा-मैं कहाँ ऐसे ठौर आ फंसा, अब कैसे छुटकारा पाऊँ। । ' "श्रप्रयासन समये मक्षिका सन्निपातः - ससार के कौतुक-रुप मधु के पानी लालसा से मैं निकला था और इच्छा थी विचर-विचर इस अनोखी-वाटिका मे जिसे संसार कहते हैं, जहां अच्छे से अच्छा मधु मिले उसे, पिऊँ, पर यहाँ इस माटे में मुझे ऐसा विषाक्त पुष्परस पीने को मिला कि कलेजा झौंस गया; आशा-लता बिलकुल कुम्हला गई; जो देखने में बड़े भव्याकृति और चेष्टा से जिनके शिष्टता, सभ्यता, बडप्पन बरस रहा है उनके गुप्त आचरण इतने महा मलिन और दुर्गन्धि-पूरित हैं तब श्रोछे छिछोरे क्षुद्र जनों का क्या ठिकाना ? (अाकाशवाणी) मधुप ! इतने से ही उकता गया। अभी तो तुझे वडी-बडी. लोलाये देखना है । मत धवड़ा। उनसे भी तेरो भेट होगी, जो तुझे वास्तव में अपने सुचरितासोट से तेरा चित्त प्रमुदित कर देगे चुपचाप मौन साध जैसा रस तुझे पीने भी मिलै पी ले। पाठक ! आप जानते हो, मधुप प्रत्येक फूलों से लै थोड़ा-थोड़ा जमा करता रहता है। आज का यह क्षुद्र प्रस्ताव मधुप के चिरकाल बा सग्रह है। इससे जो श्राप को कुछ भी चित्त-विनोद हुशा तो इसी का शेप फिर कभी आप के, करण गावर करावेगे। तब तक हमारे मधुप को और सचित कर रखने का पुनः अकाश भी मिल जागा। । मई १६०१