पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/२५

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३--संसार कभी एक सा न रहा - सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी तथा दूसरे-दूसरे ग्रह और उनके उपग्रह आदि यावत् भगण सब अपनी-अपनी कक्षा में चलते हुये कभी एक क्षण के लिये भी स्थिर नहीं रहते। तब इस दृश्य-जगत् को संसार “चलने वाला" कहना उचित ही है। स्थिर पदार्थ चाहे चिरकाल तक एक रूप में रहें भी पर जो चलने वाले हैं.वे एक ही प्रकार के और एक ही रूप में सदा क्यों कर रह सकते हैं। जो कल था सो अाज नहीं है जो आज है सो कल न रहेगा छिन-छिन में नये-नये गुल खिलते हैं। लड़के से जवान हो गये, जवान मे बूढ़े हो जाते हैं । वह प्यारी प्यारी मुग्धमुखच्छवि जिसे देखते ही आँख लुभा उठती है, जी जुड़ाता है, जिसके धूलि-धूसरित स्वभाव सुन्दर सुहावने कोमल अग-प्रत्यंग के दरस-परसे को भाग्यहीन जन तरसते हैं- पचिरासुतस्पर्श रसज्ञतां ययौ" उसका सव रंग-ढग जवानी के श्रोते ही श्रथवा यों कहिये पौगंड बीत जाने पर किशोर-अवस्था के पहुंचते ही कुछ और का और हो गया। बाल्यवस्था की मुग्धमाधुरी अकृत्रिम तरलती और सिधाई में सयानापन और कुटिलाई जगह करने लगी। स्वाभाविक सौन्दर्य में चनावटी सलोनापन आ समाया, नई-नई सजावट की और जी मुके पड़ा। एक पैसे की शीरीनी और छदाम के मिट्टी के खिलौने में नहीं ब्रह्मानन्द का सुख मिलता था वहाँ अव दो-चार अानों की गिनती ही क्या है ? रुपयों की बात चीत श्री लगी। लड़काई का उदार समभाव और सन्तोष कहीं एक बात में भी न रह सका। तृणा,, लालचे, हिर्स, दोस्ती या दुश्मनी की बाजार गरम हुश्रा, आशिकी और