सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संसार कभी एक सा न रहा वार्ता।" 'अहन्याइनि भूतानि गच्छन्ति यमन्दिरं। शेषा जीवितु 'मिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्" . संसार कभी एक-सा न रहा हमारा यह सिद्धान्त अब पाया मन में । खैर अब आगे बढ़िये । पञ्चभूतात्मक पञ्चप्राणवाले जीव जो इस चल और असार ससार मे एक-गे न रहे तो कौन अचरज है जब अटल और सदा के लिये स्थिर बड़े-बड़े पहाड सैकड़ों कोस के मैदान और जगन भी काल पाय और के और हो जाते हैं। "पुरा यत्रश्नोत: पुलिनमभूवतन्त्र सरिताम् । विपर्यासजातो धनविरल- मावः क्षितिलहाम्" उत्तर राम-चरित्र मे भवभूति कवि लिखते हैं कि दण्डक वन में जो पहिले सोते रहे, वे नदियों के प्रवीह के कारण अब पुलिन बन गये, घने और बिरले जगलों मे उलट-पुलट हो गई, जहाँ धना जगल था वहीं अब कही-कही दो-एक पेड़ रह गये और जो बिल्कुल 'पटपर मैदान था वह घने जंगल में बदल गया, इत्यादि। तो निश्चय हुआ कि परिवर्तन जिसके हमारे पुराने बुड्ढे अत्यन्त विरुद्ध हैं इस अस्थिर जगत् का एक मुख्य धर्म या गुण है। वही नये लोग इस परिवर्तन पर अनमन न होकर चिढ़ते नहीं वरन् इसे तरक्की की एक सीढ़ी मानते हैं । हमारे अभाग से भारत मे परिवर्तन को यहाँ तक लोग बुरा समझते हैं कि दिन-दिन अत्यन्त गिरी दशा मे आकर भी परिवर्तन की ओर नहीं मन दिया चाहते, यह हमारी परिवर्तन-विमुखता ही का कारण है कि हजार वर्ष से विदेशियों का पदाघात सहकर भी कभी एक क्षण भर के लिये जीवनी-नाड़ी में रक्त-सञ्चालन न हुआ। जैसे इल्म की तरक्की इस उन्नीसवी शतान्दी में हमारे देश में हुई है वैसी किसी दूसरे देश में होती तो वह देश भूमण्डल का शिरोमणि हो जाता। परिवर्तन- विमुखता के कारण इस समय की विद्यावृद्धि दाल में नमक की भांति