पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/३०

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'. भट्ट-निबन्धावली, आती रहती हैं, विवेक अलमस्त वेपरवाह को खबर तक नहीं होती। इस पर तुर्रा यह कि सब तरह कैद' मे पड़े हमारे मन को कोई इख- तियार हासिल नहीं कि विवेक से कुछ कह सके जिसका चेतना और जग उठना कभी को आकस्मिक घटना कभी को निरन्तर के अभ्यास, सत्सग या सत् शिक्षा पर निर्भर है। कभी को ऐसा भी होते देखा गया है कि मन सब ओर से चार और शोक-मोह के शिकंजे में अत्यंत ही कहा हुया होकर विवेक की शरण हूँढने लगता है। ___ तात्पर्य यह कि ये जितनी वाते हैं वे सब मनुष्य' की शक्ति के बाहर है जिस पर उस बड़े नटनागर की कृपा हुई या जिसे उसने चाहा कि अपने खेल-खिलौने में,बरी करै उसके चित्त में विवेकमानु का प्रकाश कर दिया गया नहीं तो निर्विवेकियों को पद-पद मे गिरते पड़ते-लड़खड़ाते देख आप बैठे बैठे खिलखिलाया करता है और अपना ठठोलबाजी को खूब तरक्की दना जाता है । और आगे बढ़िये कितने गरीब भुक्खड कुटुम्बी दाने-दाने को तरसते हुये सवेरे से साझ तक गाड़ी मेहनत के उपरान्त इतना भी नहीं पाते कि कुटुम्ब को मन मानता पाल सकें। श्राज घी है ता तेल चुक गया, लकड़ी है तो नोन का टोटा है। इधर एक लड़का पदा-पड़ा भूग्व-भूख चिल्ला रहा है उधर दूसरा दूध बताशे के लिये मचलाया हुआ है। घट-घट की सब बात जाननेवाला विश्वव्यापा विश्वम्भर कहलाकर भी जय नती शरमाना वरन् पड़ा-पढ़ा ताकता हा मनीमन प्रसन्न फुटेरा होता जाता है। उधर एक पत्र सम के पास एकबारगी मनमाना । असख्य धन कुरे दिया गया जिसका विलसनेवाला भी ठे पेड के, माफिक "लम्भन नीवार इगवशिश: 1 सिवा उस वूम ने दूसरा कोई नहीं है कि पुराने मरने बाद उस धन को काम में लानेगा, जय तर जिया श्रमस कदर्यता के साथ जिन्दगी काटी किसी को कुरा देना नी । सीमा नहीं, भाप साने पहनने में भी किपायत करना रहा । यहाँ ।