२६ । भट्ट-निवन्धावली जड़ को और पुष्ट किया है, बल्कि गीता में तो यहां तक दिया "योपयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त समाचरन् । . .. जानन्नपि हि मेधावी जदवल्जोक श्राचरेत" ॥ जो किसी मत या सम्प्रदाय का दृढ़ विश्वासी होता है और अपने धर्मग्रन्थों को ठीक समझता है, पर दूसरे के धर्म में डाह और तस्सुब नहीं रखता, वह अनुचित कामों से बहुत डरता है और दूसरे लोग उसमे . की हुई बातों का बड़ा भरोसा रखते हैं । इसी से पुराने राजा .लोग अच्छे धर्मशील तपस्वी विद्वानों को ढूंढ़- हूँढ़ कर यथोचित न्याय करने के लिये धर्मासन पर नियत करते थे और उन्हीं को प्राविणक बताते थे। ' तात्पर्य यह कि राजा में जो प्रनारंजन का एक विशेष गुण होना चाहिये वह उनमें था जो मनुष्य अपने मत और संप्रदाय के अनुकूल होगा वह अवश्य सब जीवों पर दया-दृष्टि रक्खेगा, परलोक और, ईश्वर का भय मन में रख पापकर्म करने से हिचकेगा और जो मनुष्य अपने यहां की धर्म-प्रणाली- छोड़ बैठेगा वह स्वच्छन्द्र विचरेगा, इधर-उधर चक्कर लगावेगा। इह लोक और परलोक के भय से शून्य होगा चाहे वह सकल विद्या पारंगत क्यों न हो। __तात्पर्य यह कि जिसने धर्म की मर्यादा को फूका नापा वह इन्साफ की गरदन पर छुरी फेरते काहे को हिचकेगा तथा प्रजा की लाभ-हानि अपने स्मार्थ के गुकायले कव देखेगा । क्योंकि जव ईश्वर न रहा, न पुण्य-पाप कोई वस्तु है, न परलोक या. पुनर्जन्म है, तब फिर क्या चार्वाक का मत है-- "यां कृस्या एवं पित". यत्रजीवरमुख जीवेनारिन मुस्योरगोचरः। भस्मी भूतस्य देवस्म पुनरागमनं ॥ ..
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