सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भट्ट-निबंधावली . . के समान भोले और सीधे हैं।" प्राचीन समय में इस तरह के सरल-चित्त प्रहलाद, अम्बरीष, शवरी, सुदामा आदि क्तिने अनन्य भक्त हो गये हैं जो अपने प्रभु और सेव्य की सेवा में सदा निरत और लौलीन रहे। इस हाल के समय में मौरा, नरसी, कबीर, दादू ,, नानक, सूर, और तुलसी प्रभृति अनेक महात्मा ऐसे हो गये जिनके हृदय का कपाट खुला हुआ था और जिनको परमेश्वर का साक्षात्कार हो गया था, जो भक्ति रसामृत के अगाध सिन्धु में डूबे हुए निर्वाणपद मुक्ति को भी लात मारते थे। . इन सबों की ऐसी दृढ लौ लग गई थी कि उन्हें 'सारा संसार अपने सेव्य प्रभुमय था और सिवाय उस सर्वव्यापी के और कुछ था ही नहीं; जिनके समभाव में सब एक थे, छोटा-बड़ा ऊँच-नीच कोई न था । जिनके कहे वाक्य या पदों में इतना असर है कि उन अक्षरों के कान कहे वाक्य या पदों मे इतना असर है कि उन अक्षरों के कान में पड़ते ही जी पिघल उठता है, तो कैसे कहें कि ये महात्मा साधारण व्यक्ति थे १ उपास्य और उपास्क मे क्या सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध को जोड़ देनेवाली कौन-सी ऐसी डोर है जो दोनों को ऐसी हड़ता के साथ मिलाये हुये है ? वह डोर यही लौ का लग जाना है। उसी को भक्ति, अनुराग, प्रेम, लगन, सख्य, सौहार्द, श्रात्मनिवेदन आदि । जुदे-जुदे नामों से कहते हैं। फिर यह डोर वैसी नहीं है जिसमें गांठ पड़ सके या उसके टूट जाने की सम्भावना हो। इसका कुछ पैड़ा ही न्यारा है । प्रेम रज्जु के बन्धन का ढङ्ग ही निराला है। "अन्धनानि किन सन्ति बहूनि प्रेमरज्जु कृतयन्धनमन्यत् । दारुमेदनिपुणाऽपि पत्रिनिनिभ्यो भवति पंकजा ॥ बन्धन बहुत तरह के हैं पर प्रेम की डोर मे पॅध जाना कुछ और ही है; मैंवरा काठ के छेदने में निपुण है सद्दी, पर पंकज के प्रेम में ' मग्न हो उसके मुकुलित हो जाने पर रात भर उसी में बँधा पड़ा रहता