ढोल के भीतर पोल "खलः सर्षप मात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । .' आत्मनो विल्वसात्राणि पश्यपि न पश्यति ॥" हाँ सच है, पर यहाँ तो बिना ढोल ही सब अोर से निरी पोल है, तब उसे क्या खोले १ वडा भारी कुनवा है। लड़की-लड़के, नाती- । पोते, बहू-बेटियों से घर भरा है। बाहर के लोग देखनेवाले यही कह रहे हैं, बुड्ढा भाग्यवान् है। जैसा ही बड़ा कुनबा वैसा ही साहुत और एका कैसा है- "बाहर लोगवा यों कहें मियाँ जिय अरु बरकत है। मियों की गति मिय जानैं साँस लेत जी सरकत है।" बुढ़ऊ भी ऊपर से बड़े भाग्यवान्, प्रतिष्ठित और बड़े कुनबे वाले बन संसार में अपना मुंह उजागर किये हैं, पर भीतर की किचकिच, लड़ाई-झगड़ों के कारण एक क्षण ऐसा नहीं जाता कि चिंता और फिकिर से छुटकारा पावे। भोर से उठ आधी रात लौ झोझट छोड़ दूसरी बात नहीं। ___"सूरदास की काली कमली चढू न दूजो रंग" बुढ़ऊ हजार चाहते हैं कि सब छोड कहीं एकान्त में बैठ कुछ ' परमार्थ साधन करे, सब-सब चेष्टा करते हैं, पर कभी इस किच-किच से जान छूट सकती है ? केवल इतना ही नहीं, बड़भागियों में हम भी समझे जाते हैं । इस नशे में चूर है; नाती हुये, पोते हुये, परोते हुये सोने की सीढ़ी चढे, श्राज इसकी मंगनी है, कल उसका व्याह है, परसों पोते का मूड़न है, लडको के लड़का हुआ,रोचना आया, जन्ना साजना पड़ा, नतनी का व्याह पा लगा, ननिहाली साजना पड़ा । तात्पर्य यह कि 'सब ओर की झौंकट और नोच-खसोट इस जीर्ण जरद्गव का पुरजे पुरजे किये डालता है सही,पर यह मोहमयी प्रमाद-मदिरा मे उन्मत्त है। एक दिन लम्वी तान मुंह वाय रह गये, घर की सब साहुत और एका रह गया। कुनबे के एक-एक आदमो अलग-अलग डेढ़ चावल की
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