पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/८७

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७१ ' ढोल के भीतर पोल' ढोल मे पोल निकाल देने को भरपूर काफी हैं। हम समझते थे, ' एडिटरी का काम बड़ी , स्वछन्दता का है । इसमे कहीं से किसी तरह 'की पोल नहीं है, समय से पत्र निकाल चुप हो बैठ रहे । , "न ऊधो के देने न माधो के लेने " .पर तले तक डूब के जो देखा तो जैसा इसमे ढोल में पोल है वैसा "किसी दूसरे काम में नहीं। टटके से टटके ख्याल दिमाग से निकाल चुटीले से चुटीला लेख लिखो कि पढ़नेवाले रीझ नुत पत्र का मूल्य भेज दे। पत्र पहुंचा पढ़ कर प्रसन्न भी हुए किन्तु मूल्य के तकाजे । 'का कार्ड रद्दियों में फेक तीन कोने का मुंह बनाय बैठ रहे इत्यादि। विचार कर देखो तो इस मायामयी ममता के मोहजाल में फसानेवाली ईश्वरीय रचना का अद्भुत स्वरूप है जिसका कोई ऐसा अग नहीं है - जिसमे कहीं पर कुछ न कुछ पोल नहीं है, फिर भी वह मायामयी रचना मृग-तृष्णा का पथिक बनाये इम सवों को अपने जाल में फंसाये 'ईशी राम भायेयं या स्वनाशेन हर्षदा । नलच्यते स्वमावोऽस्या: मेघयसापोव नश्यति॥ ' और सच तो यों है कि इस जाल से वे ही निकल सकते हैं जिसे , वही अपनी दया-दृष्टि के द्वारा बाहर खींच अपना कर ले, नहीं तो संसार-महोदधि में गोते खाते पड़े रहो। जनवरी ११०३