पृष्ठ:भट्ट-निबन्धावली.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७४ - भट्ट-निबन्धावली तन में होश न रहा । दस सभ्य मनुष्य बैठे है, किसी गुरुतर विषय पर क्थोपकथन करते हुए अपना मन रमा रहे हैं। अकस्मात् हंसों में कौत्रा-सा कोई कुन्देनातराश अकिल का कोता पर दौलत पास होने से 'पडित मन्ये वहाँ पहुँच गया और ऐसे-ऐसे अरन्तुद कर्ण-कटु शब्द अपनी बोलचाल में कह डाला कि लोग अद्विग्न हो गये, रसाभास हो गया, सब लोग खिल-चित्त हो उठ खड़े हुये इत्यादि बहुत-से और ' उदाहरण सोचने से मिल सकते हैं। । पुराने इतिहासों को पढ़ने से प्रार है कि यह कर्ण कटु अनेक सर्वनाशकारी घटनाओं का कारण हुअा है। "अन्धे के अन्धे होते हैं" द्रौपदो का दुर्योधन के प्रति यही कर्ण कटु ' महाभारत की जड हुना। लक्ष्मण ने जब रामचन्द्र के पाल सूने वन में जानकी को अकेली छोड़ जाने से इनकार किया तव जानकी ने कैसे-कैसे अरन्तुद वाक्य कहे । अन्त में उसका कैसा कुत्सित परिणाम हुआ कि रावण जानकी को शून्य वन में अकेला पाय हर ले गया इत्यादि और भी . अनेक उदाहरण इसके मिल सकते हैं। , जून १०१ AND-