ज्ञान और भक्ति के पुराने पण्डितों मे कायम है। लड़ना-भिड़ना केवल अबोधोपहत राजपूत वेचारे और विपय-लमट कतिपय राजाश्री ही मे रह गया। देश के विद्वानों में इसका कुछ भी असर न पड़ा । अन्त को यह कहावत ही चल पड़ी 'कोई नृप होहिं हमे का हानी । चेरी छोड़ न होउव रानी" और अब तो इस अग्रेजी राज में दक्षिणा-लम्पट इन कोरे पण्डितो का कुछ अद्भुत हाल हो गया कि जिससे कुछ सशोधन या देश का उद्धार है उसमे जहाँ तक वश चलता है अड़चन डालने को मुस्तैद रहते हैं। क्षत्रियों में जब जोश बाकी न रहा तो इन पण्डित और ब्राह्मण वेचारो की कौन बात रही ? तालीम की धारा मे सभ्यता के सामने ब्राह्मणों की चतुराई का खुलासा इनके वर्तमान बिगड़े हुये हिन्दू धर्म को पूछता कौन है ? अस्तु, इसी समय स्वामी रामानुज तथा मध्वाचार्य जन्म लै सेव्य- सेवक भाव की बुनियाद डाल अह ब्रह्मास्मि के प्रचार को बहुत कुछ टीला किया पर दासोस्मि दासोस्मि कह इतना दास्य भाव और गुलामी को लोगो की नस-नस मे भर दिया कि जिससे ब्रहास्मि ही बल्कि अच्छा था कि लोगों में स्वच्छन्द रहने की उत्तेजना तो पाई जाती थी। भक्ति का रसीला शुद्ध-स्वरूप वल्लभाचार्य विशेष कर कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दिखाया । प्रेम, सहानुभूति, ऐक्य आदि अनेक बाते जो हमारे मे "नेशनालिटी" कायम रखने के मुख्य अंग है उनकी जड जहाँ तक बन पड़ा पुष्ट किया पर ये लोग ऐसे समय मे हुये जव देश का देश म्लेच्छा- क्रान्त हो रहा था और मुसलमानो के अत्याचार से नामों में प्राण प्रा लगे थे । इमने श्राध्यात्मिकता पर इन्होंने बिल्कुल जोर न दिया बल्कि यह कहना अनुचित न होगा कि ऋषि प्रणीत प्रणाली को हाल के इन प्राचार्यों ने सत्र मौत तहस-नहस कर डाला | भक्ति-मार्ग की उन्नति की गई चिन्तु मारीयाध्यात्मिक अवनति के सुधार पर किमी की दृष्टि न गई। शुजक-सी भक्ति की जो विमल-मूति थी उसमें ने कज्जल सी जानिमा । वारने लगा। मूर्खता संक्रामित हिन्दू जाति के लिये
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/११
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