भट्ट निवन्धावली रसीली और हृदय ग्राहिणी हुई कि इसका सहारा पाय लोग रूखे ज्ञान को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगे और साथ ही साथ नेशनालिटी जातीयता को भी विदाई देने लगे-जिसके रफूचक्कर हो जाने से भारतीय प्रजा मे इतनी कमजोरी आ गई कि पश्चिम के देशों से यवन तथा तुरुष्क और मुसलमानों को यहां आने का साहस हुआ । इसी बीच स्वामी शंकराचार्य जन्म ग्रहण कर उसी रूखे जान को पुनः पुष्ट करने लगे-"ससार सब मिथ्या स्वप्न सदृश है; हमी ब्रह्म हैं; पाप-पुण्य-स्वर्ग-नर्क दोनो एक और बन्धन के हेतु हैं, इत्यादि इत्यादि न जानिये क्या-क्या खुराफात प्रीच करने लगे । यहाँ तक कि प्रच्छन्त बौद्ध इन आधुनिक वेदान्तियो के अद्वैतवाद से महर्षि कृष्ण द्वैपायन के वेदान्त दर्शन में बड़ा अन्तर पड़ गया। प्रेम, सहानुभूति, प्राणपण के साथ स्वदेश-गौरव का ममत्व, आदि जो जातीयता के बढाने के प्रधान अग हैं सबों पर पानी फिर गया: आध्यात्मिक उन्नति जिसका शान एक अग हैं उसमे शंकर के अद्वैतवाद का कुछ भी असर न पहुंचा। बौद्धों को पराजित कर हिन्दुस्तान से निकाल देने हो के लिये शकर महराज की विशेष चेष्टा रही इस लिये सायन, माधव, वाचस्पति आदि इनके अनुयायी तथा कुमारिल और गौड़पाद प्रभृति महा पण्डित जी शकर के समकालीन थे इन सबों की चेष्टा भी केवल बाद के ग्रन्थ निर्माण पर विशेष हुई। आर्य-प्रणाली छहो शास्त्र की सर्वथा भुला दी गई केवल बाद मात्र रहा; श्राव्यात्मिक विषयक वास्तविक 'प्रेक्टिकल' कुछ न रहा। हम पहले सिद्ध कर चुके हैं श्राध्यात्मिक उन्नति स्प्रिाचुअल प्रोग्रेस) और जातीयता नेशनैलिटी या पॉलिाटक्स मुल्की जोश साथ साथ चलते हैं। हमारे यहाँ जिस समय महम्मद गोरी आदि अत्याचारी मुसलमान विजेता सवीर ने देश को प्राक्रमण किये डालते उस समय मस्कृत में प्रत्येक विषय के कैसे-कैत श्राकर अन्य निर्माण किये गये पर उनमें पालिटिन्स की कही गन्धि नहीं पाई जाती। वही चाल अब तक सस्कृत -
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