भट्ट निबन्धावली आये थे। कुछ ऐसा मालूम हाता है कि आदमी का दिमाग कबूतर के दरबों सा है जिसमें एक समय केवल थोड़े से कबूतर और उनके अंडे बच्चे रह सकते हैं फिर ज्यों ज्यों इन कबूतरों की सृष्टि बढती जाती है त्यों त्यों दरबे के खाने भी बढ़ते जाते हैं कदाचित् इसी प्रकार की दशा श्रादमी के दिमाग और उसमे भरे हुये विषयों की भी है । आप. प.हमको डारविन साहब का पक्का चेला मत समझ लीजियेगा; हम यह नहीं मानते कि पहले लोग कम सोचते थे तो वे बन्दर थे और लोगों के सोचने के विषय अधिक होकर हमारे मस्तिष्क को अधिक -पुष्ट कर डाला इसलिये बन्दर से आदमी हो गये ! अस्तु, इस बात के मानने मे आप को किसी तरह का उजुर न होगा कि अब देखते ही देखते इसी नई नई उमदा उमदा चीज़ों की खोज ने हज़ारों नई नई विद्या निकाली हैं। हमारा केवल विज्ञान सम्बन्धी ही विद्या से प्रयोजन नहीं है किन्तु वे सब शास्त्र और विद्यायो जो मनुष्य को घर-गृहस्थी मे उठते बैठते चलते फिरते प्रतिक्षण काम मे आ सकती है और न इसी बात, के स्वीकार करने मे आपको कुछ एच-पेच होगा कि इन्ही सब नई ईज़ादों 'का यह फल हुआ कि आदमी की अधिक फुरती या चालाकी पर मानों सान सी रख दी गई है। हजारों नये नये शगल, सैकड़ों नये नये धन्धे लोगों को बझा रखने के ऐसे निकले हैं कि पूर्व कालिक समाज की गढ़न के लिये उनका उपयोगी होना ही असम्भव था। "सर्व साधारण के हित की चीजें" इस जुमले को जितना हम लोग अब सुनते हैं और जितना पिष्ट पेपण इस पर होता है उतना पूर्व कालिक लोगों के रहन-सहन के ढंग ही पर ध्यान देने से मालूम होता है कि सर्वथा असम्भव था। इस समय यह "सर्व साधारण" वह प्रबल समह है जिसने हम लोगों के लिखने के ढंग को, पढ़ने के टंग को, सोचने की प्रणाली को, पुस्तक और किताबों के विषय को, भीतर-बाहर घर-द्वार के वर्ताव को, श्राने जाने उठने बैठने रहने-सहने के तरीके को, निज
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