३१-दौड़-धूप दौड़-धूप का दरजा कहाँ तक बढ़ा हुआ है इसका अन्त पाना सहज नहीं है । सच पूछो तो ससार मे हमारा जीवन सब का सब या कुछ हिस्सा इसका केवल दौड़-धूप है और अब इस अँग्रेज़ी राज में तो इस दौड़-धूप का अन्त है। दौड़-धूप अपनी हद्द को पहुंची हुई है। घर मे जै प्राणी होंगे सब मिल कर यथोचित दौड़-धूप (स्ट्रगल) करते रहेंगे तभी चलेगा नहीं तो पहिया रुक जायगी। वर्तमान् शासन की प्रणाली ने हमारे नेत्र खोल दिये भारत का अब वह समय दूर गया जब एक आदमी कमाता और दस प्राणियों का पूरा-पूरा भरण पोपण करता रहा। अब उन दस प्राणियों मे नौ कमाते हों एक किसी कारण अपाहिज या निकम्मा निकल गया तो उसका कही ठिकाना नहीं । दूसरा कारण एक यह भी मालूम होता है कि देश मे धन रह न गया और अल्यूरमेट्स-मन को लुभाने या फुसलाने वाले चित्ताकर्षक पदार्थ इतने अधिक हो गये हैं कि उन्हें देख जी लुभा उठता है । बिना उन्हें खरीदे जी नहीं मानता, न खरीदो तो अपने आराम और प्रासाइश में फर्क पड़ता है। जिस गृहस्थी का पालन-पोषण साथ-आराम के दसरुपया महीने की आमदनी में होता था वहाँ अब हर एक जिन्स के मॅहगे हो जाने से पच्चीस रु० महीने की आमदनी पर भी नहीं चलता। इस दौड़- धूप मे एक दूसरे के मुकाविले आगे बढ़ जाने की चेष्टा जिसे अंगरेजी में कपिटीशन" और हमारी बोलचाल मे हिसका या उतरा चढ़ी कहेंगे कोढ़ मे खाज के समान है। इस उतरा-चढ़ी मे बहुत से गुण हैं पर कई एक दोष भी इसमे ऐसे प्रबल है जिससे हमारी बड़ी हानि हो रही है। एक ही बात के लिये दो प्रतिद्वन्दियों के होते आपस में दोनों की उतरा-चढ़ी (कम्पि- टीशन ) होने पर दोनों जी खोल कोशिश करते हैं जो कृतकार्य होता है उसके हर्ष की सीमा नहीं रहती। हमारे अपढ़ रुपये वाले जिन्हें
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