पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१४६

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भट्ट निबन्धावली शझल में प्रचलित कर देते थे । मुहूर्त के बहुत से ग्रन्थ 'मुहूर्त चिन्तामणि' प्रभृति, धर्मशास्त्र के अनेक ग्रन्थ निर्णयसिन्धु आदि और बहुत से अाधुनिक पुराण इसी बुनियाद पर बने और प्रचलित किये गये। निपट लठ अब के ब्राह्मणो मे इतना शऊर और अकिल कहाँ कि इतना सोचें कि हमारे धर्म के सिद्धान्त और रीति नीति पुरानी पड़ते पड़ते घिनौनी हो गई है, सम्य समाज के लोगो को सर्वथा अरोचक हो गई है। अब इस में कुछ संशोधन और अदल बदल करै जिसमें इसमे नयाग्न आ जाय और लोगो को पसन्दीदा हो पर एक तो उनको अकेन नहीं है वज्र मूर्ख होते जाते हैं दूसरे स्वार्थ उनका इसमे बिगड़ता है अपनी थोड़ी सी हानि के पीछे पुराने हिन्दू धर्म को बात बात मे दक्षिणा पुजाने के कारण अत्यन्त अश्रद्धेय और हँसने के लायक किये देते हैं। कोई कोई जो अकिल भी रखते हैं और समझते हैं कि ऐसे ऐसे वेहूदे मजहबी उसूल अब इस रोशनी के ज़माने मे देर तक चलने वाले नहीं है वे कुछ तो शरारत और कुछ अपनी सामयिक थोड़ी सी हानि देख उसमे अदल बदल नहीं किया चाहते। स्वामी दयानन्द के देश हितैषिता के सच्चे उसूलों को इसी कारण से न चलने दिया वरन् दयानन्द का नाम लेते चिढ़ते हैं। दूसरे यह कि धर्म के चोखे सिद्धान्त तो तलवार की धार हैं न उसके पात्र सब लोग हो सकते हैं न इस समय की विषय लपट हमारी वर्तमान बिगड़ी समाज को उसमे कोई सुख है। अाधुनिक ब्राहाणो की यह भी एक चालाकी है कि जैपी रुचिप्रजा की देखा वैसाही गढंत कर डाला और सनातन धर्म की बाड़ से उसे चला दिया । हमें इस सनातन धर्म पर भी बड़ी हँसो आती है और कुढ़न होती है कि इस सनातन को कुछ पोर-छोर भी है दुनिया की जितनी चुराई और बेहूदगी है सर इस सनातन धर्म में भरी हुई है। हमें तो कुछ ऐसा मालूम होता है कि दंभ और मक्कारी की बुनियाद जम तक सनातन धर्म कायम रहेगा और एक भी इसके मानने वाले बचे रहेंगे तब तक हिन्दुस्तान की तरक्की न होगी। क्योंकि जिस बात से