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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२१

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४-हृदय हमारे अनुमान से उस परम नागर की चराचर सृष्टि मे हृदय एक अद्भुत पदार्थ है देखने मे तो इसमें तीन अक्षर हैं पर तीनों लोक और चौदहों भुवन इस तिही (अक्षर) शब्द के भीतर एक भुनगे की नाई दवे पड़े हैं । अणु से लेकर पर्वत पर्य्यन्त छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई काम क्यो न हो बिना हृदय लगाये वैसा ही पोच रहता है जैसा युगल-दन्त की शुभ्रोज्ज्वल बूटियो से शोभित श्याम मस्तक वाले मदश्रावी मातङ्ग को कच्चे सूत के धागे से बांध रखने का प्रयत्न अथवा चचल कुरङ्ग को पकडने के लिए भोले कछुए के बच्चे को उद्यत करना । आँख न हो मनुष्य हृदय से देख सकता है पर हृदय न होने से आँख वेकार है। कहावत भी तो हे "क्या तुम्हारे हिये की भी फूटी हैं, हृदय से देखो, हृदय से बोलो. हृदय से पूछो, हृदय में रक्खो, हिए जिये से काम करो हृदय मे कृपा बनाये रक्खो। किसी का हृदय मत दुखायो । अमुक पुरुप का ऐसा नम्र हृदय है कि पराया दुख देख कोमल कमल की दण्डी सा झुक जाता है । अमुक का इतना कठार है कि कमठ पृष्ठ की कठोरता तक को मात करता है। कितनो का हृदय बज्रा- घात सहने का भी समर्थ होता है। कोई ऐसे भीरु हाते हैं कि समर सन्मुख जाना तो दूर रहा कृपाण की चमक ओर गोले की धमक के मारे उनका हृदय सिकुड़ कर सोंठ की गिरह हो जाता है । किसी का हृदय रणक्षेत्र में अपूर्व विक्रम और अलौकिक युद्ध-कौशल दिखाने को उमगता है। एव किसी का हृदय विपुल और किसी का सकीर्ण किसी का उदार और किसी का अनुदार होता है। विभव के समय यह समुद्र की लहर से भी चार हाथ अधिक उमड़ता है और विपद-काल में सिमट कर रबड़