पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२२

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२२ भट्ट निवन्धावली की टिकिया रह जाता है । सतोगुगा की प्रवृत्ति मे राज-पाट तक दानकर संकुचित नहीं होता, रजोगुण की प्रवृत्ति मे बालकी खाल निकाल झींगुरों की मुस्के बांधता है । फलतः प्रेम, करुणा, प्रीति, भक्ति माया, मोह श्रादि गुणों का प्रकृत-दशा मे कभी कभी को ऐसा प्रभाव होता है कि उसका वर्णन कवियों की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है उसके अनुभव को हृदय ही जानता है मुंह से कहने को अशक्य होता है । यदि यह बात नही है तो कृपाकर बताइये चिरकाल के बिछुरे प्रेमपात्रों के परस्पर सम्मिलन और इकटक अवलोकन मे हृदय को कितनी ठंढक पहुँचती है वा सहज अधीर, स्वभावतः चंचलमृदु बालक जब बड़े आग्रह से मचल कर धूलि मे लोटते हैं वा किसी नई सीखी वात को बालस्वभाव से दुहारते हैं उस काल उनके मुँह-मुकुर पर जो मनोहर छवि छाती है वह आपके हृदय पर कितना प्रेम उपजाती है वा जिसका हम चाहते है वह गोली भर टप्पे से हमे देख कतराता है तो उसकी रुखाई का हृदय पर कितना गम्भीर घाव होता है ? अथवा वहु-कुलीन महादुखी जव परस्पर असकुचित चित्त मिलते और अत्रुटित बातों मे अपना दुखड़ा कहते हैं उस समय उनके आश्वासन की सीमा कहाँ तक पहुँचती है ? शुद्ध एवं संयमी, नारायण-परायण को प्रभु-कीर्तन और भजन मे जो अपूर्व आनन्द अलौकिक सुख मिलता है वा प्राकृतिक शांभा देख कवि का हृदय जो उल्लास, शान्ति और निस्तब्ध भाव धारण करता है उसका तारतम्य कितना है पाठक, हमारे लिखने के ये सब सर्वथा बाहर हैं; अपने श्राप जान सकते हो। भक्तिरस पगं हुए महात्मा तुलसीदास जी राघवेन्द्र राघो की प्रशमा में कहते हैं- "चितवनि चार मारु मदहरनी । भारत हृदय जाय नहि यरनी ।" इससे जान पड़ता है कि हृदय एक ऐसी गहरी खाड़ी है जिसकी याद विचारे जीव को उसमें रहने पर भी कभी-कभी उस भांति नहीं मिलती जैने ताल की मछलियां दिन-रात पानी में बिलबिलाया