मन और प्राण २७ सब कहने वाला कोई तीसरा व्यक्ति है या इन्ही दोनो का मेल है, और ये दोनो घटते बढते हैं या जैसे के तैसे बने रहते हैं ? सुना है योगी- जन प्राण ब्रह्माण्ड में चढा वो तक उसे अलग रख लेते हैं । हिन्दू मुसलमान तथा अगरेजो मे ऐसे ऐसे विद्वान् हुये हैं जिन्होने मन की वडी-बड़ी ताकते प्रगट की हैं - मिसमेरेजिम इत्यादि । थियोसोफिस्ट लोगों के लिये मन बडी भारी चीज है जिसके सम्बन्ध मे वे लोग अब तक नई-नई बात निकालते जाते हैं । मुसल में रोशन-जमीर किसे कहते हैं ? योग शास्त्र मे जैसा इसका विस्तार है उसका वर्णन करने लगे तो न जानिये कै बड़े बड़े ग्रन्थ इसके बारे में लिखे जा सकते हैं। हमारे प्राचीन आर्यो ने मन के सम्बन्ध मे जहाँ तक तलाश किया है वैसा अब तक किसी कौम के लोगों ने नहीं किया । मनः कृतं कृत लोके न शरीरकृत कृतम् । मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।। जो कुछ काम हम करते हैं वह मन का किया हाता है। हाथ-पांव से हम काम करते हैं सही पर मनायोग जब तक उस काम पर न हो तब तक वह काम काम न समझा जायगा। बन्धन मे पड़ जाने का या बन्धन से मुक्त होने का हेतु केवल मन है। योग-वाशिष्ट और भग- वद्गीता मे मन के सम्बन्ध में अनेक वाते लिखी हैं पर प्राण-मिश्रित मन के बारे मे जा हमारे अनेक तर्क-वितर्क है, उनका उत्तर कही से नही मिलता और यह पहेली बिना हल हुये जैसी की तैसी रही. जाती है। अगस्त, १८६७
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/२७
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