भट्ट निवन्धावली - दी गई हैं, सिवाय इसके लैला-मजनू और यूसफ जुलेखा के किस्सों की भी यही बुनियाद है। वास्तव में हरा तो जाता है मन पर प्रणयिनी या प्रणायी की वियोग जनित यातना प्राणही को भोगना पड़ता है। 'विक्रमोर्वशी' नाटक मे पुरुरवा का मन उर्वशी से छिन जाने पर पुरुरवा को जो जो यातना भोगनी पड़ी केवल उतनाही उस नाटक का एक मात्र विषय है। किसी कवि ने किसी नायिका के अग की कोमलता के वर्णन मे बड़ी अनूठी उक्ति-युक्ति का यह श्लोक दिया है- "तव विरहबिधुरबाला सद्यः प्राणान्विमुक्तवती । दुर्लभमोदृशमंगं मत्वा न ते तामजहुः" ॥ किसी वियोगिनी का वृत्तान्त कोई उसके प्रणयी से कहता है. उस बाला ने तुम्हारे वियोग में विधुरा हो तत्काल प्राण त्याग कर दिया; किन्तु ऐसे कोमल अग अपने रहने के लिये अब और कहाँ मिलने वाले हैं यह समझ प्राणों ने उसे न छोड़ा। और भी:- अपसारय घनसारं कुरू हारं दूर एव कि कमलै" अलमालमालि मृडालैरिति रुदति दिवानिशं वाला ॥ किंकरोमि वाच्छामि रामो नास्ति महीतले । कान्ता विरहजं दुःखमेको जानाति राघवः ॥ मन और प्राण दोनो एक वस्तु हैं कि दो और ये दोनों क्या वस्तु हैं और कैमे इन दानों की श्राप विवेचना करंगे? यह रोशनी है -- हवा है विद्युत शक्ति है- या कोई दूसरी वस्तु है। दोनों मिलके काम करते है कि अलग अलग ? जो मिलके काम करते हैं ना जब प्राण निकल जाना है तब मन कहाँ रहना है ? प्राण के प्राधीन मन है कि मन के श्राधीन माण' जिसमें प्राण रहना है उसे प्रागी कहते हैं जिसमें मन है वह मनई है । यह क्या है जिसके याधीन ये दोनों हैं अर्थात् जो यह कह रहा है हम वो हैं, हम छोटे हैं, हमारा प्राण निकल गया, हमारा मन हर गया, हमारा मन नहीं चाहता, मन नहीं लगना, यह 1
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