भट्ट निबन्धावली तरह का कल्मष नहीं है द्रोह, ईर्ष्या, मत्सर, लालच तथा काम-वासना से मुक्त जिनका मन है उन्ही को जीवन्मुक्त कहेगे। बुद्ध और ईसा आदि महात्मा दत्तात्रेय और याजवल्क्य आदि योगी जो यहाँ तक पूजनीय हुये कि अवतार मान लिये गये उनमे जो कुछ महत्व था सो इसी का कि वे मन को अपने वश में किये थे। जो मन के पवित्र और दृढ हैं वे क्या नहीं कर सकते। संकल्प सिद्धि इसी मन की दृढता का फल है। शत्रु ने चारो ओर से आके घेर लिया. लडने वाले फौज के सिपाहियो के हाथ पांव फूल गये भाग के भी नहीं बच सकते, सबों की हिम्मत छूट गई, सब एक स्वर से चिल्ला रहे हैं हार मान अब 'ईल्ड' शत्रु के मिपुर्द अपने को कर देने ही ने कल्याण है, केदी हो जायगे वला से जान तो बची रहेगी। पर मेनाव्यक्ष 'कमाडर' अपने सकल्प का दृढ है सिपाहियों के रोने गाने और कहने सुनने से विचलित नही होता; कायरो को सूरमा बनाता हुआ रण भूमि में श्रा उतरा तोप के गालों का श्राघात सहता हुआ शत्रु की सेना पर जा टूटा; द्वन्द्व युद्ध कर अन्त को विजयी होता है। ऐसा ही योगी को जव उसका योग सिद्ध होने पर आता है तो विघ्न रूप जिन्हें अभियोग कहते हैं होने लगते हैं इन्द्रियों को चलायमान करने वाले यावत् प्रलाभन सब उसे ग्रा घेरते है। उन प्रलोभनी में फंस गया योग से भ्रष्ट हो गया। अनेक प्रलोभन पर भी चलायमान् नहुश्रा दृढ बना रहा तो अणिमा यादि पाठो सिद्धियाँ उसकी गुलाम बन जाती है योगी सिद्ध हो जाता है। ऐसा ही विद्यार्थी जी मन और चरित्र का पवित्र है दृढ़ता के साथ पढ़ने में लगा रहता है पर बुद्धि का तीक्ष्ण नरी है; बार बार फेल होता है तो भी ऊब कर अध्ययन ने में नहीं मोडता; अन्न को कृतकार्य हो ससार में नाम पाता है। बड़ी भी बड़ी टिनाई में पड़ा हुश्रा मन का पवित्र और दृढ़ है तो उसकी नुशामिल यासान होते देर नहीं लगती। यादमी में मन की पवित्रता "हाय नहीं हिनी न कुटिल और क्लुधिन मन बाला छिप सकना है।
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/३०
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