पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/३१

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दृढ और पवित्र मन . ऐसा मनुष्य जितनाही ऊपरी दांव-पेच कुअिपनी टलाई छिपाने को करता है उतनाही बुद्धिमान् लाग जो ताडवाज़ हैं ताड़ लेते हैं। कहावत हे 'मन से मन को राहत है" "मन मन को पहचान लेता है। पहली कहावत के यह माने समझे जाते हैं कि जो तुम्हारे मन में मैल नहीं है वरन तुम बड़े सीधे और सरल चित्त हो तो दूसरा कैसा ही कुटिल और कपटी है तुम्हारा और उसका किसी एक खास बात मे सयोग-वश साथ हो गया तो तुम्हारे मन को राहत न पहुंचेगी। जब तक तुम्हारा ही सा एक दूसरा उसमे पड़ तुम्हे निश्चय न करादे कि इसका विश्वास करो म इसके विचवई होते हैं । दूसरी कहावत के मतलब हुये कि हम से कुटिल और चाल वाज़ का हमारे ही समान कपटी चालाक का साथ होने से पूरा जोड़ बैठ जाता है। मस्तिष्क, मन, चित्त, हृदय, अन्तःकरण, बुद्धि ये सब मन के पर्याय शब्द हैं । दार्शनिकों ने बहुत ही थोड़ा अन्तर इनके जुदे जुदे 'फक्शन्स' कामों में माना है-अस्तु हमारे जन्म की सफलता इसी में है कि हमारा मन सब बक्रता और कुटिलाई छोड़ सरल-वृत्ति धारण कर, भगवदचरणारविन्द के रसपान का लोलुप मधुप वन अपने आगार जीवन को इस संसार मे सारवान् बनावे. और तत्सेवानुरक्त महज्जनो की चरण रज को सदा अपने माथे पर चढाता हुआ ऐहिक तथा प्रामुष्मिक अनन्त सुख का भोक्ता हो; जो निश्चितमेव नाल्पस्यतपसः फलम् है। अन्त को फिर भी हम एक बार अपने वाचक वृन्दो को चिताते हैं कि जो तभी होगा जब चित्त मतवाला हाथी-सा संयम के खुटे में जकड़ कर बाँधा जाय। अच्छा कहा है.- अप्यस्ति कश्चिल्लोकेस्मिन्येनचित्त मदहिपः । नीतः प्रशमशीलेन संयमानानलीनताम् ॥ मई १९०६