पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/३४

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भट्ट निबन्धावली जिनका मृदु और कोमल भाषण सुनने वालो को करण रसायन हो परस्पर दोनो मे मैत्री का दृढ सबन्ध स्थापित कर देता है ऐसों ही के साथ सम्भाषण से मैत्री का नाम साप्तपदीन कहा गया है- "यतः सतां सन्नत गानि संगतं मनोषिभिः साप्त पदीन मुच्यते" तात्पर्य यह कि जिन्हे बोलने का शऊर है उनके साथ सात लन्न को बोल चाल दृट मैत्री संवन्ध स्थिर होने के लिए बहुत है । सहज मे दूसरे का मन अपने मूठी मे कर लेना वही अच्छी तरह जानते हैं जिन्हे बालने प्राता है। सब कुछ पढ-लिख भी जिसने बोलना न सीखा उसका पढना-लिखना जन्म-पर्यन्त फीका रहता है। हमारी बात अत्युक्ति न समझी जाय तो हम यह भी कह सकते हैं कि जिन्हें बोलने का ढंग है उनकी सुधास्पद्धी बोल चाल से हार मान सुधा जाकर सुरलोक में छिप रही है। एक मभाषण खलों का है जिनका बोल सुनते ही कलेजा फट जाता है जिनके मुख कन्दरा मे कभी किसी के लिये शुभ बात निकलते किसी ने सुना ही नहीं- अहमेव गुरुः सुदारुणाना मिति हाला हल मास्म तात दृष्यः । ननु सन्ति भवा शानि भूयो भुवने, स्मिन् वचना निदुर्जनानाम् ॥ खलों के बचन से खिन्न हो कोई कवि हाला हल महाविष को सम्बोधन कर कहता है-'हे हाला हल यह मत समझो कि हम मसार में जितने निर्दयी प्राण घातक है सर्वो के गुरू है निठुगई में हमसे बट कोई हुई नहीं क्योंकि तुम्हारे समान स्खला के अनेक नियाँ बचन विद्यमान है।' एक संभाषण चट्ट बाज़ों की गप शप है जिसके कभी कुछ माने दा ही नहीं मक्ते । पाठक महाशय सम्भापण बहुत तरह पर धाता है पुराने लोग जिनको म्हस्रो वर्ष बीते सगर से कमी को सिधार गये कन्तु उनके मस्तान की नई-नई उनम कल्पनायें जो मुद्रायन 5