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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/४५

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पौरुष, १०-तेजस्विता या प्रभुशक्ति सोत्साहस्य हि लोकेषु नकिचिदपि दुष्करम् ॥ ऊपर का वाक्य आदि कवि महर्षि वाल्मीकि का है। "तेजीयान् उत्साह युक्त के लिये संसार मे ऐसी कोई बात नहीं है जिसे वह न कर डाले” सच है जिसका जी नही बुझा हिम्मत बाँधे है उसको बड़े से बड़ा काम कठिन नही मालूम होता। हमारी आर्य जाति बार वार पराजित होते होते गर्दखोर हो गई बल, वीर्य उत्साह, सत्व, अध्यवसाय, हिम्मत सब खो बैठी जो सब गुण मनुष्य में तेजस्विता के प्रधान प्रधान अग है। अग और अगी का परस्पर सम्बन्ध रहता है जब अंग न रहे तो अगी के होने की क्या आशा की जा सकती है और अब तो प्रभुत्व शक्ति का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। हिन्दुस्तान के लोग फर्माबरदारी तावेदारी इतात मे ससार की सब जाति मे अगुआ गिने जा सकते हैं सो क्यों ? इसीलिये कि इनमें से अपनापन सब भाँत जाता रहा वह आग बिलकुल बुझ गई जिससे इनमें तेजस्विता आती जो आग और जाति के लोगों में दधकती हुई पूर्ण प्रज्वलित हो रही है । शिक्षा और सभ्यता का सचार, उन उन तेजस्वी जाति वाले विदेशियों का घनिष्ट सम्बन्ध, उनका उदाहरण इत्यादि सैकडों यत्न और चेष्टा उसके पुनः सचार की सब व्यर्थ होती हैं। तेजस्विता प्रभुत्व शक्ति की कारण तो हई है वरन अपने मे बडप्पन या बुजुरगी आने की बुनियाद है। प्रभु शक्ति सपन्न तेजीयान् कैसी ही कठिनाई मे आ प. अपने दृढ अध्यवसाय, स्थिर निश्चय, पौरूपेय गुण के द्वारा उस कठिनाई के पार हो जाने की कोई रास्ता अपने लिये निकाली लेता है। वह साहसी उससे अधिक कर सकता है जितनी उसमे उस काम के करने की (जेन्स) स्वाभाविक शक्ति दी गई