पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/४६

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भट्ट निबन्धावली .. है। वरन स्वाभाविक शक्ति के बल करने वाले को जितना नैराश्य, भय हेतु, और शंका स्थान रहता है उसका आधा भी तेजीयान् प्रभुत्व शक्ति संपन्न को न हांगा । और यह प्रभुत्व शक्ति चारित्र्य (करेक्टर) का ता केन्द्र भाग है जिसके चरित्र में स्खलन है वह क्या दूसरो पर अपनी प्रभुता या रोब जमा सकता है ? तेजः पुंज की वृद्धि केवल वीर्य रक्षा आदि चरित्र की सपत्ति ही से सुकर है. तो निश्चय हुआ कि पहले हम अपने को सुधारे रहैं तो दूसरों को सुधरने के लिये प्रभु बनै: नही तो किस मुख से औरो को हम कह सकते हैं-खुद फजीहत दीगरे देह नसीहत बल्कि यों कहिये वही तो पुरुष है जिसमे तेज है । यह सतेजस्कता हमारे हर एक काम मे ऐसा ही सहायक है जैसा रक्त संवाहिनी शिरा या धमनी शरीर में जीव की साक्षिणी रह जीवन में सहायक होती है । नाड़ी छुट जाने पर मरने न देर नहीं लगनी. अच्छा वैद्य रसों का प्रयोग कर फिर उसे जगाता है । हम को अपने कामो में सच्ची उम्मेद उसी से रखना उचित है जिसमे तबियत में ज़ोर पैदा करने वाल यह गुण विद्यमान् है बल्कि मनुष्य के जीवन रूप कुसुम की मन हरने वाली सुबांस यही है । धिक कातर दुर्वलचित्त को- स्थिर अध्यवसाय दृढ चित्तताही बड़ी बरकत या कल्याण का मार्ग है । दुर्बल और प्रबल, बड़े और छोटे, जित और जेता, निर्धन और अढ्य में अन्तर बताने वाली यही प्रभु शनि सपन्न सतेजस्कता या तवियत में जोर का होना है। बिना जिसके असीम बुद्धि वैभव अथाह विद्या और सब तरह का सुबीता के रहते भी श्रादमी दो टांग वाला जानवर है। तेजीयान् ज़ोर रखने वाला यांद उद्देश्य उसका सर्वथा उत्तम और सुगहना के योग्य है तो वह जिम बड़े काम के लिये उतारू होगा करी डालेगा। यहाँ की अदालतों में हिन्दी अक्षरों के प्रचार पाने के उद्योग पर हम अपने प्रियवर मालवीय सो सदा हसते थे और यही समझते थे कि यह सब इनकी बढ़ती -