पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/५३

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सुख क्या है ? लड़ने और टॉत किर्रने में हैं । परद्रोही ईर्षी को दूसरे के नुकसान मे है, इत्यादि भिन्न-भिन्न रुचिवालो को जुदे-जुदे अन्दाज़ के सुख हैं । सच है " भिन्नरुचिर्हिलोकः " कभी-कभी हमे सुख के भाव को लोगो पर गट होने से रोकना पड़ता है। हमारा एक परोसी सैदीवाल मर गया जी से तो इतना खुश हुये मानो कारूँ का खज़ाना हाथ लगा पर लोक लाज भरने को चार भाइयो के बीच अपने सुख के भाव को छिपाने को उस मरे हुये के नाम पछताना पड़ता है। "क्या कहे कुँच कर गये बहुत अच्छे थे भाई मौत से किसका बश है ऐसे ही मौके पर तो आदमी सब तरह बिवश हो जाता है । सच पूछिये तो चित्त मे सुख का भाव पैदा होने की बुनियाद कुछ नहीं है केवल प्राप्य वस्तु के अभाव का मिट जाना ही सुख है। ईश्वर करे सुख में रह कर पीछे से दुखी किसी को न होना पड़े ऐसे को दुखी जीवन से मर जाना उत्तम है। सुखहि दुःखान्यनुभूय शोभते धनान्धकारेष्विव दीपदर्शनम् । सुखेन यो जाति नरो दरिद्रतां धृतः शरीरेण मृतः सजीवति ॥ जैसा घने अन्धेरे मे चले जाते हुये को एकाएक दीपक का उजेला मिल जाय उसी तरह दुःख भोग तव सुख मे आजाना शोभा देता है जो मनुष्य सुख मे रह नव दरिद्र हो जाता है वह मानो शरीर धारण किये श्वास ले रहा है पर वास्तव मे मरा हुआ है। दुःखैक मात्र सार इस ससार में सुख से जीवन काटने को बहुतो का सुख चाहना पड़ता है । नौकर को अपने मालिक का सुख, रियाया को अपने हाकिम की खुशी । शागिर्द को उस्ताद की खुशी । माँ बाप को अपने लड़के वालो का सुख । आशिक तन को अपने दिलदार यार का सुख । शहर के रईसो को मेजिष्ट्रेट साहब की खुशनूदी। मातहत लको का सर दक्ततर की खुशी । हमको अपने पढने वालो की प्रसन्नता आपेक्षित है। किसी रसीले चुटीले मजमून पर पढने वालों के दाँत निकल पड़े