भट्ट निबन्धावली संहाता । रूपये के मुकाविले वेटे को बाप से न बाप को वेटे से कोई मुहब्बत है, स्त्री जो अपनी अागिनी है उससे भी प्रेम नही है तो भाई- वन्यु, गोती नारी, लोग कुटुम्ब कहाँ रहे ? मनुष्य जन्म की सफलता और यावत् सुख का साराश उन्हें तभी मालूम पड़ता है जिस समय रुपयों की गॅजिया खोल गिनने लगते हैं। तोले दा तोले बालाई पचा लेना जिनके लिये कठिन काम है जिसका सेर दो सेर का वज़न हम ऐसे नुक्खडो की क्षुधासागर के किस कोने में समा गया कुछ मालूम नहीं पड़ता, दस की हुण्डी वावन मिती की कल भुगतान देने को है २५ फलाने असामी के नीचे दवा है मियाद बीतती है असाम्री दिवा- लिया हो रहा है कल ही नालिश नहीं करते तो रकम डूबती है रात की नीट दिन की भूख गाय बैठे । अहर्निश चिन्ता के सागर में डूबे हैं नीयत दुरुस्त नहीं कोई की कैसी रकम हो निगल बैठने के लिये बहाना ढूंढ रहे हैं । यही करते करते एक दिन मुहबाय रह गये सुग्व क्या वस्तु है न जाना । वही तीन गडे रोज़ का मज़दूर दिन भर मेहनत के उपरान्त रूखा सूखा अन्न खाय टाँग पसार रात को सुख से सोता है चिन्ता और फिकिर किसका नाम है जानताही नहीं। दिवसस्याष्टमे भागे शाकं पचति स्वगृहे । अनृणी चाप्नवासी च सवारिचर मोदते ॥ अस्तु, इस तरह बड़ी कृपणता और कदर्यता से रुपचा जाड़ सिधार थे। नन्तान उनकी ऐसी कुल कुठार जन्मी कि वप ही दो कप में स्वाशी, शराब ख्वारी आदि अनेक दुगुन्गों में फेंक तागा, यही व तेच समझ किमी ने लिखा है "प्राय दुःख व्य दुवं कथमर्थाः सुखावहा" निकी प्रामदनी में नुःख जिमके खर्च की जान में दुख की धन मन्य पचाने वाला क्योर हो सकता है। श्रावश मे श्राप लिय ता
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