चढती जवानी की उमग में सबों को अपने नीचे किये हैं उनके भी छक्के छुटा दे, हिकमत मे अरस्तू और लुकमान को भी कहो कुआँ झकावे । हमारी वत्कृता के आगे वाचस्पति रद्द हई हैं, डिमास्थानीज़ और सिसिरो भी रहते तो शरमा जाते; तब इन दिनो के छोटभइये केशव सेन, सुरेन्द्रनाथ, दादाभाई, एनीबिसेट, मिस्टर ग्लाडस्टन, मालवीय प्रभृति किस गिनती मे हैं । किसी व्यवसाय की ओर झुक पड़े तो 'किदूर व्यवसायिनाम्" को लिखने वाले को सिद्ध कर दिखावे कि देखो व्यवसाय और उद्यम इसे कहते हैं। यूरोप और अमेरिका तो मानो घर आगन था, पुराणो के सात द्वीप नौ खण्ड या यो कहिये पूर्वी और पश्चिमी गोलार्द्ध (ईस्टर्न और वेस्टर्न हेमी स्फेयर) दोनो को छान उनका सत्त निकाल ले या यो कहिये अपनी वाणिज्य की योग्यता (ट्रेडिंग कैपसिटी) को लेई सा पकाय दोनो गोलार्डों को एक मे चिपका दे। हमारी पहलवानी के आगे रुश्तम का कोई रुतबा न रहा। सच है:- "मक्खी का भुजदण्ड उखाड़ तोड़ कच्चा सूत । धूसन मार बताशा फोर्ड हूँ मै बडा मज़बूत ॥" उदारता मे हमे कलियुग का करन कहना कोई अत्युक्ति नही है। "चमड़ी जाय दमड़ी न जाय" भी हमारे लिये बहुत ही सुघटित है। हमें अपनी जवानी का जोश यही बतला रहा था कि किफायत करना बड़ी चीज़ है। किसी को और और हौसिले होते हैं हमे अपनी नई उमग मे रुपया जमा करने का भूत चढा था। रूखे-सूखे अन्न से किसी तरह झोंझ समान इस उदर को भर लेते थे पर रुपया जोड़ते गये । औरों को किसी दूसरी बात मे नाम पैदा करने को रुचि होती है हम को वद्धमुष्टि बज्र कृपिणता में नाम कमाने का शौक था। सूरत देखना कैसा, भोर को उठते हमारा नाम किसी की जवान पर आ जाय तो लोग कानों मे उगलिया देने लगते थे और सोचते पछताते थे कि न जानिये आज का दिन कैसा कटै ? काइयापन और सुमाई के फन में कलकत्ता की बड़ी बाज़ार के मारवाडी भी हमे मान गये। हमारा
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